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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ १०३ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनशुद्धाः इस शब्द का अर्थ तीन प्रकार से किया जा सकता है। पहला अर्थ—सम्यग्दर्शन शुद्धं निर्मलं येषां ते' अर्थात् शुद्ध, निर्मल है सम्यग्दर्शन जिनका । दूसरा-'सम्यग्दर्शनेन शुद्धाः' अर्थात् जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं। इन दोनों अर्थों में से पहले में सम्यग्दर्शन की शुद्धता-निरतिचार अथवा २५ मल दोषों से रहित अर्य व्यक्त होता है और दूसरे अर्थ से सम्यग्दर्शन से विशिष्ट आत्मा द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित पर-सम्बन्ध से रहित ऐसा सूचित होता है। तीसरा अर्थ--शुद्ध शब्द से अबद्धायुष्कता अर्थ अभिप्रेत है, जो कि उचित है और प्रकृत कथन के अभूकल है। जिनके परभव सम्बन्धी आयुकर्म का बन्ध अभी तक नहीं हुआ है। इस प्रकार तीसरा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि जो बद्धायक हैं अर्थात् जिन जीवों ने मिथ्यात्व अवस्था में परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध कर लिया है और जिन्हें बाद में सम्यग्दर्शन हुआ है ऐसे जीव अपने आयुकर्म के अनुसार सम्यग्दृष्टि होकर भी नरक तिर्यंच और मनुष्यगति को प्राप्त होते हैं । क्योंकि आयुकर्म का बन्ध होने के पश्चात् छूटता नहीं है। उसका उदय तो अवश्य ही होता है किन्तु इन अवस्थाओं में भी जीव का यह सम्यग्दर्शन महान् उपकार करता है । जिसने नरकायु का बन्ध कर लिया, पश्चात् उसे सम्यक्त्व हुआ तो वह जीव प्रथम नरक से नीचे के नरकों में उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार जिसके तिर्यंचाय का बन्ध होने के पश्चात् यदि सम्यक्त्व उत्पन्न हो तो वह सम्यक्त्व सहित मरण कर भोगभूमि में पुरुष लिंग का धारक तिर्यंच होगा। यदि कोई तिर्यच अथवा मनुष्य परभव की आय का बन्ध करके सम्यग्दृष्टि हुआ और सम्यक्त्व सहित ही मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह भोगभूमि में पुरुष पर्याय ही धारण करता है। देव और नारकियों की आयु में अन्तर है । क्योंकि उनके मनुष्य और तिर्यंचायु का ही बन्ध होता है। देव मरकर देव या नारकी नहीं होते, उसी प्रकार नारको भी मरकर नारकी या देव नहीं होते । किन्तु यहां पर जो आचार्यश्री ने नरक और तिर्यंचगति में जन्म लेने का निषेध किया है वह अबद्घायुष्क जीवों की अपेक्षा से ही किया है, ऐसा समझना चाहिए। सम्यग्दृष्टि नपुसकवेदी, स्त्रीवेदी नहीं होते हैं, दुष्कुल में उत्पन्न नहीं होते हैं । जिन कुलों में सज्जातित्व के विरुद्ध आचरण प्रवर्तमान हो उन सभी कुलों को दुष्कुल समझना चाहिए । यहाँ पर कुल परम्परा से चले आते जीव के ऊँच-नीच आचरण को गोत्र कहा है ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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