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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ २७ स्वर्ग-मोक्ष फल की प्राप्ति होना है । जिस प्रकार 'बीजाभाबेतरोरिब' मूल कारणरूप बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार मलकारणभूत सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान तथा चारित्र की न उत्पत्ति होती है, न स्थिति होती है, न वृद्धि होती है और न फल की प्राप्ति ही होती है। विशेषार्थ मोक्षमार्ग रत्नत्रयात्मक है। केवल सम्यग्दर्शनरूप ही नहीं है। किन्तु ऊपर जो कथन किया है उससे मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की ही मुख्यता सिद्ध होती है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान कुज्ञान कहलाता है और चारित्र कुचारित्र माना जाता है। परन्तु फिर भी यह बात स्पष्ट है कि इन तीनों के साथ सम्यक् विशेषण के लगाने का अथवा इनको सत् शब्द के द्वारा कहे जाने का कारण यह है कि इनमें आत्मा को संसार-परम्परा की तरफ से मोड़कर शुद्ध स्वाधीन धव, आनन्दरूप अवस्था में परिणत एवं स्थित करने की योग्यता है। इस प्रकार ये सम्यग्दर्शनादि तीनों ही समीचीन होकर सामान्य से आत्मा की सिद्धि में साधनरूप हैं । दर्शन में भी समीचीनतारूप कार्य के लिए उसके योग्य ज्ञान, चारित्र की आवश्यकता है । यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो उसके लिए किसी भी तरह के नियम की आवश्यकता ही नहीं रहेगी । चाहे जब चाहे जिसके किसी भी अवस्था वाले जीव के सम्यग्दर्शन हो जायेगा । किन्तु ऐसा नहीं है। इसलिये दर्शन में समीचीनता की उत्पत्ति के लिए जिस तरह के ज्ञान चारित्र की अपेक्षा है उसके लिए वैसा मानना उचित है कि वह सम्यग्दर्शन बन सके। दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों ही आत्मा के स्वतन्त्रगुण हैं, जब तक ये मिथ्याअसमीचीन रहते हैं तब तक ये संसार के कारण बने रहते हैं एवं जब इनमें समीचीनता आ जाती है तो मुक्ति के कारण बन जाते हैं फिर भी यहां पर प्रधानता की अपेक्षा से कहा है कि बिना सम्यक्त्व के ज्ञान, चारित्र भले रूप में सिद्धिदायक नहीं हो सकते । जिस प्रकार वृक्ष की उत्पत्ति आदि में बीज का सद्भाव आवश्यक है बिना बीज के वृक्ष की उत्पत्ति आदि नहीं हो सकती है, और जब उत्पत्ति नहीं तो स्थिति, वृद्धि भी कैसे होगी और फल भी कहाँ से मिलेगा ? उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, और बिना उत्पत्ति के स्थिति कहाँ से हो सकती है। बिना स्थिति के ज्ञान-चारित्र की वृद्धि भी नहीं होती, तथा ज्ञान, चारित्र का फल जो सर्वज्ञ परमात्मरूप अवस्था वह कैसे प्राप्त होगी ? अतः सम्यक्त्व के बिना सत्यश्रद्धानज्ञान चारित्र कदापि नहीं होते ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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