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मलकावीर
दर्शन की दो अवस्थाएँ विवक्षित हैं- मिथ्यात्व और सम्यक्त्व | अनादिकाल से दर्शन मिध्यारूप में ही परिणत है किन्तु जब वह सम्यक्रूप से परिणत हो जाता है। तब उसमें वह सामर्थ्य आ जाती है जिसे ऊपर बता चुके हैं। सम्यग्दर्शन के बिना ग्यारह अंग, नौ पूर्व का ज्ञान और महाव्रतरूप चारित्र भी समीचीनता को प्राप्त नहीं होते हैं इसलिए गणधर देवादि ने सम्यग्दर्शन की उपमा मोक्षमार्गरूप नाव को चलाने वाले खेवटिया से दी है ।
ननु चास्योत्कृष्टत्वे सिद्ध कर्णधारत्वं सिद्धयति तच्च कुतः सिद्धमित्याह
विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ ३२ ॥
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'सम्यक्त्वेऽसति' अविद्यमाने । 'न सन्ति' । के ते ? संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । कस्य ? विद्यावृत्तस्य । अयमर्थ:- विद्याया मतिज्ञानादिरूपायाः वृत्तस्य च सामायिकादिचारित्रस्य या संभूति प्रादुर्भावः स्थितिर्यथावत्पदार्थ परिच्छेदकत्वेन कर्मनिर्जरादि हेतुत्वेन चावस्था नं, वृद्धिरुत्पन्नस्य परतर उत्कर्षः फलोदयो देवादिपूजायाः स्वर्गापवर्गादिश्च फलस्योत्पत्तिः । कस्याभावे कस्येव ते न स्युरित्याह - बीजाभावेतरोरिव बीजस्यमूलकारणस्याभावे यथा तरोस्ते न सन्ति तथा सम्यक्त्वस्यापि मूलकारणभूतस्याभावे विद्यावृत्तस्यापि ते न सन्तीति ||३२||
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता सिद्ध होने पर उसमें कर्णधारपना सिद्ध होता है, परन्तु वह उत्कृष्टता किससे सिद्ध होती है ? इसके उत्तर में कहते हैं—
( बीजाभावे ) बीज के अभाव में ( तरो इव ) वृक्ष की तरह ( सम्यक्त्वे असति ) सम्यक्त्व के न होने पर ( विद्यावृत्तस्य ) ज्ञान और चारित्र की ( संभूतिस्थिति - वृद्धि - फलोदयाः ) उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की उद्भूति ( न सन्ति ) नहीं होती है ।
टीकार्थ — विद्या - मतिज्ञानादि और वृत्त सामायिकादि चारित्र इनका प्रादुर्भाव, स्थिति - जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा जानना, तथा कर्म निर्जरा के हेतुरूप से अवस्थान होना, वृद्धि - उत्पन्न होकर आगे-आगे बढ़ते जाना फलोदय - देवादिक की पूजा 'से