________________
९८]
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
गुणभद्राचार्य ने आस्मानुशासन में कहा है--
शमबोधवृत्त तपसां पाषाणस्यैव गौरवं पुसः ।
पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ।।१५।।
अर्थ-यदि किसी पुरुष आत्मा के मन्दकषायरूप उपशम परिणाम हैं, शास्त्राभ्यासरूप ज्ञान है, पाप त्यजनरूप चारित्र भी है और अनशनादिरूप तप भी है--इन्हीं का महन्तपना है तो वह पाषाण के भार समान है, विशेष फल का देने वाला नहीं । और यदि ये ही क्रियायें सन्यापूर्वक हो हो महामणि के गुरुत्व के समान पूजनीक होती हैं और बहुत फल की देने वाली तथा महिमा योग्य बनती हैं।
जिस प्रकार सामान्य पाषाण भी पाषाण है और मणि भी पाषाण है किन्तु सामान्य पाषाण से मणि कितना प्रभावशाली एवं बहुमूल्य होता है, मणिरत्न मिलने पर व्यक्ति मालामाल हो जाता है, रंक से राजा बन जाता है, परन्तु पाषाण कितने ही टन पड़ा रहे उसकी कोई विशेष कीमत नहीं होती। उसी प्रकार सम्यक्त्व सहित अल्पज्ञान, अल्पचारित्र, तप इस जीव को कल्पवासी इन्द्र की पदवी और जन्म-मरण से रहित ऐसे परमात्मपद को प्राप्त करा देता है इसलिए सम्यक्त्व सहित ही शमभाव, ज्ञान, चारित्र और तप जीव का कल्याण करने वाले होते हैं ।।३२॥
यतश्च सम्यग्दर्शनसम्पन्नो गृहस्थोऽपि तदसम्पन्नान्मुनेरुत्कृष्टतरस्ततोऽपि सम्यग्दर्शनमेवोत्कृष्ट मित्याह
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृहीश्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥३३॥
'निर्मोहो' दर्शनप्रतिबन्धक मोहनीयकर्मरहितः सद्दर्शनपरिणत इत्यर्थः इत्थंभूतो गहस्थो मोक्षमार्गस्थो भवति । 'अनगारो' यतिः । पुनः 'नव' मोक्षमार्गस्थो भवति । किविशिष्टः ? 'मोहवान्' दर्शनमोहोपेतः । मिथ्यात्वपरिणत इत्यर्थः । यत एवं ततो गही गृहस्थो। यो निर्मोहः स 'श्रेयान्' उत्कृष्टः । कस्मात् ? मुनेः । कथंभूतात् ? 'मोहिनों' दर्शनमोह युक्तात् ॥३३।।
जिस कारण सम्यग्दर्शन से सम्पन्न गृहस्थ भी सम्यग्दर्शन से रहित मुनि की अपेक्षा उत्कृष्ट है, उस कारण से भी सम्यग्दर्शन ही उत्कृष्ट है, यह कहते हैं