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रत्नकरण्ड श्रावकाचार से आच्छादित अंगारे के भीतरी भाग के समान तेज से युक्त ( देवं ) आदरणीय ( विदुः ) जानते हैं।
टोकार्थ- चाण्डाल कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई पुरुष सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है तो वह आदर सत्कार के योग्य है, ऐसा गणधरादिक देव कहते हैं क्योंकि 'देवा वि तस्स पणमन्ति जस्स धम्मे सयामणो' जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है उसे देव भी नमस्कार करते हैं ऐसा कहा गया है। अतएव ऐसे व्यक्ति का तेज भस्म से प्रच्छादित अंगारे के भीतरी तेज के समान निर्मलता से युक्त है।
विशेषार्थ-इस कारिका में इस बात का ध्यान रखना है कि आचार्य श्री ने जो दृष्टान्त गभित उक्ति का प्रयोग किया है उसका प्रयोजन स्मय के विषयभूत पूज्यता, सज्जातित्व, कुलीनता को व्यर्थ दिखलाना अथवा मोक्ष की साधनभूत जो सज्जातित्वादि सामग्री है उसका निराकरण करना नहीं है अपितु प्रकृत कारिका का प्रयोजन तो प्रधानभूत अन्तरंग सम्यग्दर्शन गुण की महत्ता बतलाना है तथा यह भी बतलाना है कि आत्मसिद्धि के लिए अरहन्तदेव ने मुमुक्षुओं के लिए इस आध्यात्मिक सम्पत्ति को प्रधान माना है।
जीव का व्यवहार दो प्रकार का देखा जाता है। एक आध्यात्मिक दूसरा आधिभौतिक । आत्मा के गुणों की ओर दृष्टिपात करके जब विचार और व्यवहार किया जाता है तब आध्यात्मिक व्यवहार कहा जाता है, और जब जीव से सम्बद्ध या असम्बद्ध अन्य पदार्थों की ओर मुख्य दृष्टि रखकर विचार किया जाता है, तब वह व्यवहार आधिभौतिक व्यवहार कहा जाता है।
यहाँ पर शुद्ध निश्चयनय, अशुद्धनिश्चयनय, अनुपचरितसद्भुत व्यवहारनय, अनपचरितअसद्भूतव्यवहारनय, उपचरितसद्भूतव्यवहारनय, उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय इन छह नयों के द्वारा होने वाला व्यवहार भी आगमानुकूल घटित करना चाहिए। क्योंकि आचार्य देव शरीराश्रित व्यवहार की अपेक्षा आत्माश्रित शुद्धसम्यग्दर्शन गुण की ही मुख्य रूप से महत्ता बतला रहे हैं। किन्तु अन्य नयाश्रित व्यवहार का निषेध भी नहीं कर रहे हैं। क्योंकि साधना में शरीराश्रित व्यवहार भी मान्य एवं प्रयोजनभूत है । किन्तु अन्त में वह भी हेय होने के कारण गौण और उपेक्षणीय माना गया है । और आत्माश्रित विषय मुख्य होने के कारण प्रधान और महान कहा गया है। अतएव उसी की महत्ता का दिग्दर्शन करा रहे हैं । एवं मातंग शरीर से उत्पन्न होने