________________
रत्न करण्ड थावकाचार
[८७ अध:करण---इसका काल अन्तर्मुहुर्त है। यहाँ पर नाना जीवों की अपेक्षा विशुद्ध परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं | इस करण में स्थित ऊपर के समयवर्ती जीवों के परिणाम नीचे के समयवर्ती जीवों के परिणामों से मिलते हैं, इसलिए इसका नाम अध:करण है।
अपूर्वकरण-इसका काल भी अन्तर्मुहर्त है। यहां पर अधःकरण से भी असंख्यात लोक गुणे विशुद्ध परिणाम पाये जाते हैं। यहां समान समयवर्ती के परिणाम सदृश और विसदृश दोनों ही प्रकार के होते हैं, तथा भिन्न समयवर्ती के परिणाम भिन्न ही होते हैं। यहां पर चार आवश्यक कार्य होते हैं-गुणश्रेणी निर्जरा, गुण संक्रमण, स्थितिखण्डन और अनुभागखण्डन ।
अनिवत्तिकरण-इसका काल अन्तर्मुहूर्त है । यहाँ जितने समय हैं उतने ही परिणाम हैं। प्रति समय एक-एक ही परिणाम होता है । करणपरिणाम के द्वारा ही अनादिमिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकर्म के तीन खण्ड हो जाते हैं-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति । इस प्रकार सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न हो जाता है, सम्यग्दृष्टि किसी भी प्रलोभन में नहीं पड़ता है ।।२७॥
अमुमेवार्थं प्रदर्शयन्नाह
सम्यग्दर्शनसम्पन्नामपि मातंगदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ॥२८॥
'देव' आराध्यं । "विदु' मन्यन्ते । के ते? 'देवा' 'देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सयामणों' इत्यभिधानात् । कमपि ? 'मातंगदेहजमपि' चाण्डालमपि । कथंभूतं ? 'सम्यग्दर्शनसम्पन्न' सम्यग्दर्शनेन सम्पन्न युक्त । अतएव 'भस्मगढाकारान्तरोजसं भस्मना गूढ़ः प्रच्छादितः स चासावङ्गारश्च तस्य अन्तरं मध्यं तत्रैव ओजः प्रकाशो निर्मलता यस्य ।२८।।
आगे यही भाव दर्शाते हुए कहते हैं
(देवाः) गणधरादिक देव, (मातङ्गदेहजमपि) चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए भी (सम्यग्दर्शनसम्पन्न) सम्यग्दर्शन से युक्त जीव को (भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम्) भस्म