________________
रत्नकरण्द्ध श्रावकाचार
तथा चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इस प्रकार ये सात प्रकृतियाँ सम्यक्त्व का घात करने वाली हैं। इन सातों प्रकृतियों के उपशम से औपशामिक सम्यक्त्व होता है । इन सातों के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। किन्तु अनादि मिथ्याष्टि के सर्व प्रथम उपशम सम्यक्त्व ही होता है।
सम्यक्त्व की उत्पत्ति चारों गतियों के जीवों के होती है। चाहे वह अनादि मिथ्यादृष्टि हो या सादि मिथ्यादृष्टि हो परन्तु वह भव्य, संजी, पर्याप्त और ज्ञानोपयोग से युक्त, जाग्रत होना चाहिए। यह सन्यादर्शन पांचवों करजलब्धि के अनिवृत्तिकरण के अन्त समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूप में प्रकट होता है ।
लब्धियाँ पाँच हैं--क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । इनमें से प्रारम्भ की चार लब्धियाँ तो भव्य और अभव्य दोनों के ही होती हैं किंतु करणलब्धि तो जिसके सम्यग्दर्शन उत्पन्न होना है, उसी के होती है ।
क्षयोपशमलब्धि-अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग प्रति समय अनन्तगुणा घटता हुआ उदय में आना।
विशुद्धिलब्धि-शुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत शुभ परिणामों की वृद्धि होना और संक्लेश परिणामों को हानि होना विशुद्धिलब्धि है।
देशनालब्धि-छह द्रव्य और नौ पदार्थ के उपदेश देने वाले आचार्यादि का लाभ, उनका उपदेश सुनना, उस मार्ग को अपनाना ।
प्रायोग्यलब्धि-आयुकर्म के बिमा सातकर्मों की स्थिति अन्तः कोड़ा कोड़ी सागर मात्र रहना, यहाँ पर घातिया कर्मों का अनुभाग लता, दारु रूप रहता है, अस्थि शैल रूप नहीं। तथा अधातिया कर्मों का अनुभाग निम्ब-कोजीररूप रहता है । विष हालाहलरूप नहीं। प्रायोग्यलब्धि में ही चौंतीस बन्धापसरण होते हैं, जिनका विशेष वर्णन लब्धिसार ग्रन्थ में देखा जा सकता है ।
करणलब्धि—यह लब्धि भव्य के ही होती है, अभव्य के नहीं । करणलब्धि के तीन भेद हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । यहाँ पर 'करण' नाम कषायों को मन्दता से होने वाले आत्मपरिणामों का नाम है ।