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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[८५ सांसारिक वैभव की इच्छा से पुण्य सम्पादन करने के लिए तपश्चरणादि नहीं करता, वह तो आत्मसिद्धि के कारणभूत संघर निर्जरा के लिए तप में प्रवृत्ति करता है। हाँ इतना अवश्य है कि उसकी परिणाम विशुद्धि के कारण स्वयं ही विशिष्ट पुण्य का अर्जन हुआ करता है । और उसे असाधारण फल का लाभ भी मिलता रहता है । जब कि पापास्रव को करने वाले मिथ्याइष्टि जीव के उस प्रकार की विशुद्धि न होने से उस प्रकार का पुण्य और उसका फल भी प्राप्त नहीं होता। अतएव यह स्पष्ट है कि पापनिरोधी जीव जहां अपनी अन्तरंग विभूति से स्वयं महान् है और स्वयं प्राप्त होने वाली बाह्य विभूतियों की भी आकांक्षा न होने से उसे आवश्यकता नहीं है वहाँ पापासवी जीव अन्तरंग में भी दरिद्री है और बाहर में कदाचित् पापोदय की मन्दता या पुण्योदय के कारण कदाचित् बाह्य वैभव प्राप्त हो भी गया तब भी वह आत्मश्रद्धान से शून्य होने के कारण उपयोगी नहीं है । यह दुःखमय संसार पंचपरावर्तनरूप है, पंचपरावर्तन को करने वाला पापास्रव से युक्त मिथ्याइष्टि जीव ही है । मिथ्यात्व का निरोध हो जाने पर सम्यग्दृष्टि जीव को पाँचों परावर्तनों में से सबसे छोटा जो पुद्गलपरावर्तन है, वह भी अर्धभाग से अधिक नहीं भोगना पड़ता, जबकि मिथ्यात्व का निरोध नहीं होने से पापास्रव से युक्त जीव त्रस राशि में भी दो हजार सागरोपम से अधिक नहीं रह सकता, इसके बाद उसे नियम से निगोद राशि में जाना ही पड़ता है।
सम्यग्दर्शन के प्रकट होने के पूर्व भव्य और अभव्य दोनों के ही चार लब्धियों में से पहली क्षयोपशमलब्धि और दूसरी विशुद्धिलब्धि के परिणामस्वरूप जो पापकर्मों का हास और पुण्यकर्मों में वृद्धि हुआ करतो है वह भी इतना महत्वपूर्ण कार्य है कि अन्य साधारण निरतिशय मिथ्याष्टियों को प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु सम्यक्त्व के हो जाने पर पापों के शिरोमणि मिथ्यात्व का सर्वथा निरोध होते ही ४१ पाप प्रकृतियों का संबर होने से निर्जरा के प्रथम स्थान का लाभ होता है । उस सम्पत्ति की तुलना तो संसार की किसी भी विभूति से नहीं की जा सकती। किन्तु जो व्यक्ति बाह्य वैभव के अभिमानवश इस महान् सम्पत्ति की तरफ दुर्लक्ष्य करके धर्म और धर्मात्माओं का तिरस्कार एवं अवहेलना करता है, वह नियम से अपनी ही हानि करता है।
संसारी जीवों के अनादिकाल से अष्टकर्मों का बन्धन है। उनमें मोहनीय का भेद जो दर्शनमोहनीय है उसके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति ।