________________
।
जहां प्रवेश करने की परवानगी नहा है ऐसे गृह के जन्म में प्रवेश करना यह क्षेत्र प्रतिसेवना है। आवश्यकों के नियत काल को उल्लंघन कर अन्य समय में सामायिकादि करना, वर्षाकाल योग का उल्लंघन करना यह काल प्रतिसेवना है। दर्प, उन्मत्तता, असावधानता, साहस, भय इत्यादि रूप परिणामों में प्रवृत्त होना भाव प्रतिसेवना है।
आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तक पिच्छादि परोपकरण ग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचना करणे संघनाम पृष्ट्वास्वसंघ गमने देश काल नियमेनावश्य कर्तव्य व्रतविशेषस्य धर्मकथादि व्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवं विधे आलोचनभेव प्रायश्चितं । अर्थात् आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना, दूसरे साधु की अनुपस्थिति में उसकी पीछी आदि उपकरणों का ग्रहण करना, प्रमाद से आचार्याद्रि की आज्ञा का उल्लेधन करना, आचार्य से बिना पूछे संघ में प्रवेश करना, धर्मकथादि के प्रसंग से देश काल नियत आवश्यक कर्तव्य न व्रत विशेषों का विस्मरण होने पर उन्हें पुन: करना, तथा अन्य भी इसी प्रकार के दोषों का प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है।
पांडन्द्रियवागादि दुष्परिणामे, आचार्यादिषुहस्तपादादि संघटने, व्रत सगिनि गुप्तिषु, स्वल्पातिचारे, पैशून्य कलहादि करणे, वैयावृत्य स्वाध्यायादि प्रभादे, गोचरगतस्य लिंगोत्थाने, अन्य संक्लेशकरणा दौ च प्रतिक्रमण प्रायश्चित्तं भवति। दिवसांते राज्यते भोजनममनादौ च प्रतिक्रमण प्रायश्चित्तं । अर्थात् छहों इन्द्रिय तथा वचनादिक का दुष्प्रयोग, आचार्यादिक के अपना हाथ पांव आदिक टकरा जाना, व्रत समिति गुप्ति में छोटे-छोटे दोष लग जाना, पैशून्य तथा कलह आदि करना, वैयावृत्त्य तथा स्वाध्यायादि में प्रमाद करना, गोचरी को जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, अन्य के साथ संक्लेश करने वाली क्रियाओं के होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह प्रायश्चित्त सांयकाल और प्रातःकाल तथा भोजनादि के जाने के समय होता है।
शक्त्यनिंगृहनेन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित्कारमादप्रासुकग्रहण
wicosindoostKANDDODAILY
।
प्रायश्चित्त विधान - ६६