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xxम्म्म्म्म्म्म परिवर्जन परिहारः अर्थात् पक्ष महीना आदि के विभाग से संघ से दूर रखकर त्याग करना परिहार प्रायश्चित्त है।
जो ऋजुभाव से आलोचना करते हैं ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त देने योग्य हैं और जिन के विषय में शंका उत्पन्न हुई है। उनको आचार्य प्रायश्चित्त नहीं देते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करने वालों में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए संपूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं। सारांश यह है कि प्रायश्चित्त आलोचना करने पर ही होता है। जैसा कि भगवती आराधना में लिखा है -
एत्थ दुउज्जुग भावा ववहारि दुवचा भवंति ते पुरिसा । संका परिहरि दव्वा सो से पट्टाहि जहि विसुद्धा ॥६२० ॥ पडिसेवणादि चोर बदि आजपदि तहा कम्मं सब्चे । कुव्वंति तहो सोधि आगमववहारिणो तस्स ॥ ६२१ ।।
परिणाम चार प्रकार से जाने जाते हैं। १. सहवास से, २. उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मंद क्रोधादिक का स्वरूप मालूम होता है । ३. जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे? ऐसा उसको पूछने पर भी परिणामों का निर्णय किया जा सकता है। जैसा कि विजयोदय टीका में लिखा है - कथं परिणामों ज्ञायते इति चेत् सहवासेन तीव्र क्रोधस्तीद्रमान इत्यादिकं सुज्ञातमेवा तत्कार्योपस्यात्, तयेव वा परिपृच्छय, कीग भक्तः परिणामोविचार समकालं वृत्तः।
पृथ्वी पानी आदि सचित्त द्रव्य, तृण का संस्तर, फलक वगैरह अचित्त द्रव्य, जीव उत्पन्न हए हैं ऐसे उपकरण मिश्र द्रव्य, ऐसे तीन प्रकार के द्रव्यों का सेवन करने से दोष लगते हैं। यह द्रव्य प्रतिसेवना है । वर्षाकाल में मुनि आधा योजन से अधिक गमन करना निषिद्ध स्थान में जाना, विरुद्ध राज्य में जाना, जहाँ रास्ता टूट गया ऐसे प्रदेश में जाना, उन्मार्ग से जाना, अंत:पुर में प्रवेश करना,
प्रायश्चित्त विधान - ६५