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कर्म रूपी पर्वतों के सैंकड़ों टुकड़े कर डालते हैं। वे मुनिराज चाहे चल रहे हो, चाहे आराम से बैठे हो या सुख-दुख की बहुत सी अवस्था को प्राप्त हो रहे हो तथापि वे ध्यान को कभी नहीं छोड़ते हैं। शुक्ल लेश्या को धारण करने वाले और अपने मन में धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान का चितवन करने वाले वे मुनिराज स्वप्न में भी कभी आर्तध्यान और रौद्रध्यान के वश में नहीं होते हैं। मेरु पर्वत के समान निश्चल रहने वाले वे मुनिराज परिषहों की महासेना तथा उपसर्गों के समूह आ जाने पर भी अपने ध्यान से रंचमात्र भी कभी चलायमान नहीं होते हैं। वे राग-द्वेष रुपी छोटे-बड़े ही दुष्ट हैं ये मनुष्यों को जबरदस्ती कुमार्ग में ले जाते हैं ऐसे इन घोड़ों को योगी पुरुष ही अपने आत्म ध्यान रुपी लगाम से श्रेष्ठ ध्यान : रुपी रथ में जोत देते हैं। वे मुनिराज परमात्मा से उत्पन्न हुए ध्यान रुपी आनंदाभूत 'को सदा पीते रहते हैं। इसलिए वे क्षुधा तृषा आदि परिषहों को मुख्य वृत्ति से कभी नहीं जानते । देखो यह श्रेष्ठ ध्यान एक उत्कृष्ट नगर है यह नगर जिन शासन की भूमि पर बसा हुआ है। चारित्र रूपी परकोटे से घिरा हुआ है विवेक रुपी बड़े दरवाजों से सुशोभित है भगवान जिनेन्द्र देव की आज्ञारूपी खाई से वेष्टित है इसके गुप्ति रुपी वज्रमय किवाड़ है श्रेष्ठ तप का आचरण रुपी योद्धाओं से यह भर रहा है उत्तम क्षमा आदि मंत्रियों के समूह से यह सुशोभित है। सम्यग्ज्ञान रुपी कोतवाल इसकी रक्षा करते हैं इसकी सीमा के अन्त में संयम रूपी बगीचे लग रहे हैं कषाय और काम रुपी शत्रुओं के समूह तथा पंचेन्द्रिय रूपी चोर इसमें प्रवेश नहीं कर सकते न इस नगर का भंग कभी हो सकता है यह ध्यान रुपी नगर साधु लोगों से भरा हुआ है और परम मनोहर है ।
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इस नगर के स्वामी के मुनि ही होते हैं जो महाशक्ति रुपी उत्तम कवचों को सदा पहने रहते हैं जो समता रूपी ऊंचे हाथी पर चढ़े रहते हैं जिनके हाथ में धैर्य रुपी धनुष सदा सुशोभित रहता है तथा जो रत्नत्रय रूपी बाणों को धारण करते -रहते हैं। ऐसे उत्तम सुभट रुपी मुनिराज इस श्रेष्ठ ध्यान रूपी नगर के राजा होते हैं । वे ध्यान रूपी नगर के स्वामी मुनिराज निःशंकित रुपी डोरी को खींचकर रत्नत्रय रूपी बाणों की वर्षा करते हैं और मोक्ष रुपी राज्य को प्राप्त करने के लिए प्रायश्वित्त विधान ६४