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समस्त सेना के साथ मोह रुपी शत्रु को मार डालते हैं। तदनन्तर मोहरूपी महा शत्रु के मर जाने पर उन मुनियों के कर्म रुपी सब शत्रु नष्ट हो जाते हैं और देवों के द्वारा पूज्य वे मुनिराज सदा काल रहते मोक्ष रुपी साम्राज्य को प्राप्त कर लेते हैं। वे मुनिराज तपश्चरण करके अपने आत्मा को श्रम या परिश्रम पहुंचाते हैं। इसलिए वे श्रमण कहलाते हैं। वे मुनिराज अपने कर्मों को अर्पण करते हैं भगा देते हैं या नष्ट कर देते हैं इसलिए महर्षि कहे जाते हैं। वे मुनिराज अपनी आत्मा का अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं इसलिए मुनि कहलाते हैं अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पांचो ज्ञानों से वे सुशोभित रहते हैं इसलिए भी वे मुनि कहलाते हैं। वे मुनिराज सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं इसलिए साधु कहे जाते हैं। उनके रहने का कोई नियम स्थान नहीं रहता इसलिए वे अनगार कहलाते हैं। उनके रागद्वेष आदि समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं इसलिए वे वीतराग कहलाते हैं और तीनों लोकों के इन्द्र उनकी पूजा करते हैं। इस प्रकार अनेक सार्थक नामों को धारण करने वाले वीतराग ध्यानी तपस्वियों के परम ध्यान की शुद्धि होती है। रागी मुनियों के ध्यान की सिद्धि कभी नहीं हो सकती।
इति जनमुख जाता येऽज शुद्धिर्दशैव, अशुभ फलहेत्रीस्वर्ग मोक्षादि कत्री। परम चरण यत्नैपालन्त्यात्य शुध्यैः । रहित विधि मलांगस्तेऽति चिरात्युम होतः ॥ ७१ ॥
इस प्रकार भगवान जिनेन्द्र देव के मुख से प्रगट हुई ये दश शुद्धियों समस्त अशुभों का नाश करने वाली है और स्वर्ग मोक्ष की देने वाली है जो महापुरुष अपने आत्मा को शुद्ध करने के लिए प्रयत्न पूर्वक धारण किए हुए परम चारित्र के द्वारा इन देशों शुद्धियों को पालन करते हैं वे बहुत शीघ्र कर्ममल कलंक से सर्वथा रहित हो जाते हैं। ornayajisaster
प्रस्तुत कृति मुनिकुंजर आचार्य आदिसागरजी अंकलीकर की प्रायश्चित्त विधि नामक ग्रंथ है। इसमें प्रायश्चित्त की जिस पद्धति को अपनाया गया है वह पूर्वाचार्यनुक्रम से है
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प्रायश्चित विधान-५५