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________________ o mmawy mes chacandwadwonlowdictionaristmissatistianistanidiosshoomladiadioactitualANIMAHILAIMES उत्पन्न हुए घोर दुर्गम उपसगों को सहन करते हैं। वे मुनिराज अपनी पूर्ण शक्ति से उपसर्ग और परीषहों को सहन करते हैं । व्यवहार निश्चय दोनों प्रकार के रत्नत्रय को धारण करने में लीन रहने वाले बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रहों से सर्वथा दूर तथा लिजेंद्रिय और प्रमाद रहित वे निमाज कपर लिस्खे अनुसार बाह्य घोर तपश्चरणों को धारण करते हुए भी प्रायश्चित्त आदि छहों प्रकार के समस्त अंतरंग तपश्चरणों को अनुक्रम से सर्वोत्कृष्ट रूप से धारण करते हैं। वे मुनिराज यमराज के समान मिथ्यादृष्टि और दुष्ट मनुष्यों के दुर्वचनों से उनकी ताड़ना से तर्जना से या उनकी भार से कभी भी क्षुब्ध नहीं होते हैं। जिस प्रकार किसी जाल से हिरण को बांध लेते हैं उसी प्रकार वे मुनिराज समस्त अनर्थों की खानि ऐसे मनुष्यों की पांचो इंद्रियों से उत्पन्न होने वाली विषयों की आकांक्षा को अपने वैराग्य रूपी जाल से बहुत शीघ्र बांध लेते हैं। जो मुनिराज इनके सिवाय और भी महायोर और उग्र तपश्चरणों को धारण करते हैं तथा समस्त इंद्रियों को जीतते हैं उन्हीं मुनि की पाप रहित निर्दोष तपः शुद्धि होती है। ___जो चतुर मुनि अपने मन के समस्त संकल्प विकल्पों को दूर कर तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग कर पर्वतों की गुफा आदि में बैठकर एकाग्रचित्त से धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान को धारण करते हैं तथा इन दोनों ध्यानों को मोक्ष के ही लिए धारण करते हैं उनके कर्म रूपी वन को जलाने के लिए ही ज्वाला के समान ध्यान शुद्धि कही जाती है । यह अपना मन दुर्धर हाथी विषय रूपी वन में घूमता रहता है। इसको ध्यान रूपी अंकुश से पकड़कर बुद्धिमान लोग ही अपने वश में कर लेते हैं। पंचेन्द्रिय रूपी जल से उत्पन्न हुई और रतिरूप समुद्र में कीड़ा करती हुई चंचल मछलियों को ध्यानी पुरुष जाल में शीघ्र बाँध लेते हैं। मनरूपी उत्कट राजा के द्वारा पाली हुई और समस्त जीवों को दुख देने वाली ऐसी कपाय रूपी चोरों की सेना को योगी पुरुष ही ध्यान रूपी तलवार से मारते हैं। चतुर पुरुष इस ध्यान के ही द्वारा समस्त योगों को उत्कृष्ट मूलगुण तथा उत्तर गुणों को उपशम यरिणामों को और इंद्रियों के दमन को कर्म रूप से धारण कर लेते हैं। वे मुनिराज श्रेष्ठ ध्यान रूपी बज्र की चोर से मोहादिक वृक्षों के साथ-साथ अशुभ rur.umr.maxxxxraxxx प्रायश्चित्त विधान - ५३
SR No.090385
Book TitlePrayaschitt Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
PublisherAadisagar Aakanlinkar Vidyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size3 MB
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