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रत्नाभूषण एवं सुकोमल वस्त्र पहनायें । निरांजना कर शिविका में ग्रारूढ़ किये । यहाँ तक इन्द्रराज प्रमुख थे। परन्तु अब उन्हें पीछे हटा राजा लोग आगे आये क्योंकि मनुष्य पर्याय में ही संयम पालन की योग्यता है, इसीलिए पालकी उठाने का प्रथम अधिकार राजाश्रों को प्राप्त हुआ। देखिये संयम धारण करने की योग्यता की महिमा | योग्यता मात्र का महत्व इतना विशाल है तो पालन करने का तो कहना ही क्या ? यस्तु सात पेंड पर्यन्त भूमिगोचरी राजागरण पालकी ले गये । इसके अनन्तर इन्द्र एवं देवतागण आकाश मार्ग से लेकर सहेतुक वन जा पहुँचे ।
माघ शुक्ल नवमी के दिन सायंकाल रोहिणी नक्षत्र में सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर पूर्वाभिमुख विराजमान होकर एक हजार (१०००) राजाओं के साथ परम दिगम्बर मुद्रा धारण की। पंचमुष्ठी लोन किया षष्ठोपवास की प्रतिज्ञा कर दीक्षित हुए। उसी समय परि रणामों की परम विशुद्धि से चतुर्थ मनः पर्याय ज्ञान भी उत्पन्न हो गया । देवेन्द्रों ने अत्यन्त भक्ति से प्रभु की पूजा की। इस प्रकार तप कल्याणक महोत्सव विधिवत् सम्पन्न कर वे स्वर्ग को लौट गये । लोक जन यथायोग्य पूजा अर्चना कर अपने-अपने स्थान को चले गये ।
प्रभु का पारणा
ष्ठपवास के साथ प्रभु प्रवृजित हुये थे । श्रतः शुद्ध मौन से दो दिन तक ध्यानारूढ़ रहे । माघ शुक्ला द्वादशी को योग पूर्ण कर चर्या निमित्त विहार किया । ईयसमिति पूर्वक मन्द गमन करते हुए भगवान प्रयोध्या नगरी में पधारे। चारों ओर राजा, महाराजा, प्रजा ब्राह्वान करने को उत्सुक हो नमन करने लगे प्रत्येक अपने को असीम पुण्य का अधिकारी बनाना चाहता था परन्तु लाभ तो एक ही को मिलना था । श्रतः परमानन्द उपजाने वाले प्रभु को प्रथम पक्षगान का लाभ ब्रह्मा महीपाल को प्राप्त हुआ । नवधा भक्ति से सप्तगुण युक्त 'ब्रह्मा' राजा ने सपत्नीक भगवान को प्रथम पारणा कराया । दाता और पात्र को विशेषता से दान में विशेष चमत्कार होता है । साक्षात् तीर्थङ्कर होने वाले मुनिराज से बढ़कर और कौन पात्र हो सकता है ? तीर्थङ्कर को प्रथम प्रहार देने वाले से अधिक कौन पुण्यात्मा दाता हो सकता है ? कोई नहीं । अतः एव प्रभु के आहार लेने के बाद तत्क्षण पंचाश्चर्य
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