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________________ जाता है । यही दशा हुई राजा अजित प्रभु की। एक दिन अजितनाथ अपने महल की छत पर सुख से विराजे थे । सहसा अम्बर में विद्युत (बिजली) चमक कर विलीन हो गई। इसके देखते ही प्रभु के हृदय का चारित्रमोहावरण भी विलीन हो गया । क्षण भंगुर लक्ष्मी, वैभव, यौवन भी इसी प्रकार एक दिन नष्ट होने वाला है ।" यही विचार उनके हृदय में समा गया । वैराग्य भाव जागृत हुया । विषयों से सर्वथा विरक्ति हो गई । परिग्रह पोट का भार उन्हें असह्य हो गया । मोह का परदा फट गया । ज्ञानोदय हो गया । संसार की अनित्यता का चिन्तन करते ही सारस्वातादि लौकांतिक देव शीघ्र ही था उपस्थित हुए, दीपक जलते ही प्रकाश की भाँति । वे भगवान के वैराग्य भाव को प्रशंसा करते हुए उसे पुष्ट करने का प्रयत्न करने लगे । यद्यपि भगवान स्वयंबुद्ध थे, तो भी अपनी भव संतति का उच्छेद करने के लिए उनके वैराग्य में सहकारी हुए । लोग देखते अपने- अपने नेत्रों से हैं परन्तु सूर्य उसमें हेतु बन जाता है उसी प्रकार लोकान्तिक देवों ने अपना नियोग पूरा किया । I राज्य स्याग- वैराग्य की काष्ठा पर पहुंचे भगवान ने अपने सुयोग्य, राज्यनीति में fry, कला, गुण, रूप सम्पन्न ज्येष्ठ पुत्र अजितसेन को राज्याभिषेक कर राजमुकुट पहनाकर राज तिलक किया। झूठन के समान राज्य को देते समय उन्हें परमानन्द हो रहा था । तिनके समान उसे छोड़ते समय प्रति संतुष्ट थे प्रभु । निर्मोही प्रभु-राजा प्रजा को संतुष्ठ कर सर्वारम्भ-परिग्रह का त्यागरूप दीक्षा धारण करने को तत्पर हुए, कि तत्क्षण इन्द्र महाराज 'सुप्रभा' नाम की शिविका (पालकी) लेकर मा उपस्थित हुए । परिनिष्क्रमण या दीक्षा कल्याणक देवेन्द्र सपरिवार चल पड़ा । वह हर्ष से भूम रहा था। साथ ही विषाद से भी । क्यों ? क्यों कि भगवान संयम धारण करने जा रहे थे परन्तु अब वह उनके साथ संयमी बनकर उनकी सेवा नहीं कर सकता था। यही नहीं उसे प्रथम प्रभु की पालकी उठाने का भी सुअवसर इसी कारण प्राप्त नहीं हुआ । प्रथम ही प्रभु का मंगलाभिषेक किया । सुन्दर [ ६७ ---------------
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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