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नहीं हुए। अपने को भूले नहीं । यही कारण था कि भोगों की वृद्धि के . साथ बुद्धि, ज्ञान, विवेक, कला-कौशल, न्याय-नीति, विविध विद्याकौशल भी उत्तरोत्तर बढ़ता रहा । शरीर वृद्धि होने पर भी प्राप कुमार जैसे ही थे । यौवन का उन्माद या वृद्धत्व के चिह्न मात्र भी जाग्नत नहीं हए। शरीर की दीप्ति और ग्रात्मा का सेज निखरता ही गया । प्राप दया और क्षमा की मूर्ति थे, जन्म से अणुबती-संयमी वत् प्रापका आचरण और स्वभाव था। प्रारगी मात्र के प्रति करुणा भाव था । सबको सुखो करने से आपका अजित नाम सार्थक था। राज्याभिषेक
सद्गुण सम्पन्न सुयोग्य राज्य संचालक पुत्र को पाकर जितशत्रु परमानन्द में डूबे थे । पुत्र, पौत्र एवं असाधारण राज्य वैभव में निमग्न थे । समय पाकर यौवन सम्पन्न पुत्र को राज्यभार देने का निर्णय कया। भोग कितने भी क्यों न हों तृप्ति नहीं कर सकते । खारा जल अगाध होने पर भी तृषा बुझाने में समर्थ नहीं होता। क्षणभंगुर राज्य वैभव क्या प्रात्मीक शान्ति दे सकता है ? कदापि नहीं ! यही सोचकर महाराज ने श्री अजित पुत्र को राजा बनाने का निर्णय किया । प्रजा ने भी प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार किया। मन्त्री पुरोहित आदि सभी इससे प्रसन्न थे।
शुभ दिन, शुभ मुहर्त, शुभ लग्न में श्री अजित प्रभु का राज्याभिषेक महोत्सव, महान् वैभव के साथ सम्पन्न हुआ । आदीश्वर भगवान के समान ही पुत्रवत प्रजा का पालन करने लगे। लोथंकर प्रकृति का प्रभुत्व, राज्य सम्पदा, निष्कण्टक भोगों को पाकर भी आप उसमें प्रात्यासक्त नहीं हुए अनेकों सुर-सुन्दरियों के साथ विवाह हुमा था तो भी सिद्ध प्रभु का ध्यान सतत् हृदय में रहता । आपके दया, क्षमा और स्नेह से प्रजा चाकरवत् सेवा में तत्पर रहती थी । वस्तुतः जिनकी सेवा इन्द्र, धरणेन्द्र, देव, देवियाँ करें उनकी सेवा भला मनुष्य क्यों न करेंगे। दम्पत्तियों का काल वर्ष भी क्षरण समान सुख शान्ति से व्यतीत होने लगा। बराम्य--
पापाद मस्तक भोगों में निमग्न व्यक्ति उसी प्रकार विरक्त भी हो सकता है जिस प्रकार प्राकण्ठ भोजन करने वाला मिष्ठान्न से विरक्त हो