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सर्वज्ञ होने वाली भव्यात्मा का अवतार होता है। पतिव्रता, धर्मपरायणा, जगदम्बा स्वरूप महादेवी श्री विजयसेना महारानी सूख' शय्या पर शयन कर रही थी । रात्रि का अवसान पाया । पुण्यवती माँ अपने पूर्व संचित पुण्योदय से स्वाललोक में विचरमा करने लगी। उन्होंने मरुदेवी माता के समान वृषभ, गज आदि १६ स्वप्न देखे । प्रानन्दविभोर पुलकित अंग माता ने अन्त में अपने मुखकमल में गंधगज को प्रविष्ट होते देखा और उसी क्षण वन्दजनों के मांगलिक बादित्रों की ध्वनि के साथ निद्रा भग हो गई । सिद्धपरमेष्ठी का स्मरण करती हयी मों का सौम्य मुख अद्वितीय था। हृदय का उल्लास चेहरे पर दमक उठा । नित्य क्रिया कर अपने पति महाराजा जितशत्रु से १६ स्वप्नों का वृतान्त कहा और उनके फल जानने की अभिलाषा व्यस की। महाराज ने भी यथोचित्त उत्तर देते हुए, "परमोत्कृष्ट, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थङ्कर का जन्म होगा" यह शुभ सन्देश सुनाया । दम्पत्ति वर्ग परमानन्दित हुए।
शुभ हो या अशुभ अद्वितीय घटना को फोलते देर नहीं लगत्तो। इधर रोहणी नक्षत्र के उदय में ब्रह्ममुहर्त से कुछ पूर्व ज्येष्ठ कृष्णा अमावश्या के दिन, विजयविमान से च्युत हुदा अहमिन्द्र गर्भ में अवतरित हम्रा और उधर इन्द्रराज का पालन डगमगाने लगा। अपने अवधिज्ञान नेत्र से तीर्थङ्कर प्रभु का गर्भावतरमा जानकर ससंन्य, सपरिवार गर्भ कल्याणक महोत्सब मनाने चल पड़ा । यद्यपि छ: महिने पूर्व से ही उसकी आज्ञानुसार कुवेर प्रतिदिन एक-एक बार में ३॥ करोड़ रत्नों की वर्षा करता रहा । षट्-कूमारिकानों में गर्भ पोधना की । भगवान स्फटिक के करपड़ समान गर्भ में निर्बाध विराजमान हुए । समस्त ५६ कुमारिकानों को माता की यथावत् सेवा सुश्रुषा करने की प्राज्ञा देकर इन्द्र अपने स्थान को चला गया।
सीप में मोती जिस प्रकार बढ़ता है उसी प्रकार तीर्थङ्कर का जीव बिना किसी बाधा के उदर में पुष्ट होने लगा। माँ को इससे किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुमा अपितु बुद्धि, कला, गुसा, स्मरण शक्ति, प्रत्युत्पन्नमति प्रादि गुणों के साथ शरीर की कान्ति, रूप, लावण्य वृद्धिमृत हए बाह्य रूप में कोई भी चिह्न-उदर वृद्धि, प्रमादादि का नाम भी नहीं हुमा । समस्त भोगोपभोग के सावन, इन्द्र की प्राज्ञानुसार देव