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देवियाँ स्वर्ग से लाकर उपस्थित करती थीं। क्रमशः प्रामोद-प्रमोद, . धार्मिक तत्त्व चर्चा, प्रश्नोत्तर करते हुए नवमास पूर्ण हुए। पूर्ववत् प्रतिदिन ३०-३।। करोड़ रत्नों की त्रिकाल बृष्टि होती रही।
जन्म कल्याणक---
विजयसेना महारानी यद्यपि हमेशा हर्षित रहती थीं दुःख का लेश भी नहीं जानती थीं, किन्तु आज विशेष हर्षोल्लास, उत्साह और उमंग का अनुभव कर रही थीं। जबकि साधारण माता-जननी प्रसवकाल में पीड़ानुभव करती है । वह यहाँ कुछ नहीं था अपितु सुखानुभूति थी। पुण्य का यही महात्म्य है। महाराजा जितशत्रु भी अप्रत्याशित पानन्द की अनुभूति में निमग्न थे । प्रकृति इनके सुखोपभोग की वृद्धि के लिए अपना वैभव बिखेर रही थी। माघ मास शुक्ल पक्ष, रोहिणी नक्षत्र, वृषभ लग्न, शुभ मुहूर्त में विजयसेना महामाता ने अयज्ञान नेत्रधारी जगत्पूज्य, सर्व लक्षण सम्पन्न भावी तीर्थङ्कर पुत्ररत्न को प्रसव किया ।
अन्माभिषेक : एवं नामकरण --
इन्द्रासन कम्पन द्वारा इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से विदित किया कि मति, श्रत, अवधिज्ञान धारी भगवान का जन्म हो गया । बस फिर क्या था. जन्मोत्सव मनाने को चल पड़ा । ऐरावत हाथी पर आसीन इन्द्र की समूद्र गर्जनयत कोलाहल करती हयी समस्त देव सेना प्राकाशप्रांगण में प्रा डटी । समस्त वैभव प्रादीप्रवर भगवान के समान था, हाँ वस्त्राभूषण कुछ छोटे थे । महारानी के महल क्या नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर इन्द्र ने शचि-इन्द्राणी को प्रसूतिगृह में जाने की आजा दी । तदनुसार इन्द्राणी नमस्कार कर बालककी प्रतिकृति स्थापित कर प्रभ को गोद में ले घन्यभागी अनुभव करती हुयी ले पायी । इन्द्र को सौंपते ही वह विश्मित हो गया उसने एक हजार नेत्र बनाकर रूपराशि को निहारा । समस्त देव समूह के साथ प्रभु को लाकर सुमेरु पर्वत पर स्थित पाण्डक शिला पर विराजमान कर १००८ कलशों में हाथोंहाथ पांचवें क्षीरसागर से जल लाकर स्नान कराया-जन्माभिषेक किया। पश्चात समस्त इन्द्राणियों देवियों ने भी किया । पुनः शनिदेवी ने कोमल वस्त्र से अंग पोंछकर वस्त्राभरण पहनाये, अंजन लगाया । इन्द्र में भगवान का शक्ति वैभवानुसार सार्थक "अजित" अर्थात् अजितनाथ ६४ ।