SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अज्ञानान्धकार में डूबा लोक भव्यात्मा श्रात्मस्वरूप को समझकर आपके समान समस्त तत्वज्ञानी बन सकें । : विहार काल में इन्द्र ने भगवान के चरणों के नीचे आकाश ही में श्रधरं परागरंजित, सुगंधित, मनोहर सुवर्ण के कमलों की रचना की । प्रभु के चरणों के नीचे १, आगे ७, और पीछे इस प्रकार १४ । पुनः दोनों पाश्र्चों ( बगल ) में ७-७-१४ कमल थे। चारों दिशाओं के अन्तराल -विदिशाओं में भी ७-७ होने से २८ कमल रहे थे । पुनः इन आठों अन्तरालों में ७-७ = ७ x ६ = ५६ कमल थे । पुनः १६ अन्तरालों में प्रत्येक में ७-७ कमल इसलिए १६४७ ११२ कमल हुए । सब मिलाकर १५+१४+२८५६ : ११२ - २२५ कमलों की रचना करता जाता था । श्राकाश मण्डल चतुरिकाय देवों से एवं जय घोषों, वादिनों से व्याप्त था । वह दृश्य अपने में अपने ही समान था अर्थात् उपमा रहित था। भगवान का विहार वर्षाऋतु के समान था । इस प्रकार उन वीर वीर प्रभु ने काशी, अवंती, कुरुजांगल (हस्तिनागपुर), कौशल - अयोध्या, सुहा, पुंड्र, चेदि, अंग, बंग (बंगाल), मगघ (बिहार), आंध्र, कलिंग, मद्र-मद्रास (तमिल), पंचाल मालवा, दशार्ण, विदर्भ शादि अनेक देशों में विहार कर धर्मामृत-धर्मोपदेशामृत पिलाकर भव्यों को संतुष्ट किया । ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति और उसका फल महाराज भरत ने यजनयाजन, पूजन विधान, दान-दाता, पढ़नापढ़ाना आदि का क्रम अनुबद्ध-सतत चलता रहे इस अभिप्राय से क्षत्रिय श्री वैश्यों की परीक्षा ली | सबको भोजन के लिए आमंत्रित किया । अपने प्रांगन में कीचड़, अंकुर और धान बिखरवा दिये। जो लोग इनको खूदते हुए आ गये वे प्रव्रती कहलाये और जिन्होंने इन्हें जोब कहकर उन पर से आना स्वीकार नहीं किया वे व्रती कहलाये | भरत महाराज ने इनका यज्ञोपवीत (जनेऊ) वारण संस्कार कराया और इनका वर्ण ब्राह्मण" निश्चित किया । i 1 १६ स्वप्न देखे | जिनका अपने ज्ञान से यह जान एक दिन भरत ने रात्रि के पिछले पहर में फल कुछ दुःखोत्पादक था। यद्यपि भरत जी ने लिया कि इनका परिणाम यागामी काल में कटुरूप होगा, तो भी पूर्ण निश्वयार्थ श्री आदि भगवान के समवसरण में गये । विधिवत् श्री मंडप ५४ ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy