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नाना पूजा सामग्री लेकर समवसरण में जाने को उद्यत हुए । इन्द्र की आज्ञानुसार समस्त स्वर्ग लोक के दिव्य प्रष्टद्रव्य संजोकर भक्ति, श्रद्धा, दिन से चल पड़े | देवों का मूल शरीर तो अपने विमान में ही रहता है । अन्यत्र उनकी विक्रिया ही जाती है। प्रथम इन्द्र में सिहासन छोड़कर वहीं से नमस्कार किया । पुनः पृथ्वी पर श्राने को चल पड़ा ।
आकाश मण्डल जय-जयकार से गूंज उठा। दिव्य पुष्प वृष्टि होने लगी । दिशाएँ एवं आकाश निर्मल हो गया । सर्व ऋतुओं के फल- पुष्प एक साथ फलित हो गए मानों प्रभु चरणों की अर्चना की स्पर्धा कर रहे हों। आकाश मण्डल में चारों ओर सुर विमान उतरते चढ़ते नजर आ रहे थे । आने वाले देव, इन्द्र बड़ी भक्ति से भगवान को नमस्कार कर रहे थे । नभ से सुगंधित गंध वृष्टि, गंधोदक वृष्टि हो रही थी, मानों समवसरण की भूमि का शोधन ही करती हो । इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने भगवान की धर्म सभा - समवसरण की अनूठी रचना की । जिसमें बैठकर प्रथम इन्द्र ने और फिर चक्रवर्ती श्रादि नरेशों ने अपनेअपने परिवार सहित तीन लोक के नाथ प्रादिब्रह्मा श्री वृषभदेव की की । महापूजा
समवसरण मण्डप -
केवलज्ञान होने के पूर्व भगवान मौन से तप करते रहे। अब समस्त जीवों के कल्याण हेतु उपदेष्टा हो गये । उपदेश भवन होना श्रावश्यक है भगवान विराजमान हो यागत भव्यात्मा सम्यग्दृष्टि प्राणियों को धर्मामृत पिला सके । अतः कुबेर ने इन्द्र की आज्ञानुसार नीलमणि रत्न की भूमि बनाकर उस पर १२ सभायों से युक्त प्रवर-प्रकाश में समवसरण की रचना की । यह १२ योजन लम्बा और इतना ही चौड़ा था अर्थात् ४८ कोस लम्बा-चौड़ा था । गोलाकार था । पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर था। ऊपर जाने को २०,००० सीडियां रत्नजडित सुवर्ण की थीं। बाहरी भाग में सर्व प्रथम रत्नों की धूलि से बनाया घुलिस कोट था। यह माना मणियों के चूर्ण से व्याप्त था । कहीं लाल, कहीं पीला, सफेद, नीला, काला, केसरिया हरा घादि रूपों में चमकता मयूर, तोता, कोकिला आदि का भ्रम पैदा करता था | कहीं sra are और कहीं चन्द्रिका की शोभा बिखेरता था। इस धूलियाल के भीतर कुछ दूर जाने पर गलियों के बीचों बीच चारों दिशाओं में
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