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________________ कम न हो इसके लिए ज्ञान रूपी मंत्री, परम विशुद्ध परिणाम सेनापति के स्थान पर नियुक्त किये। गुण रूपी योद्धाओं की सेना बनायी । मोह राजा की सेना राग-द्वेषादि पर चढ़ाई करने की यामा दी । बस, गुरण श्रेणी निर्जरा के बल से कर्म रूपी सेना छिन्न-भिन्न हो गयी, खण्ड-खण्ड हो गई । अशुभ प्रकृतियाँ शुभ रूप परिणत हो गई। अशुभ कर्मों की स्थिति अनुभाग शक्ति मृत प्रायः हो गई। इस प्रकार कर्मोद्यान को दलन-मलन करते प्रभु अप्रमत सातिशय गुणस्थान में जा पहुँचे । मोक्ष महल की सीढ़ी समान क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए । अन्तर्मुहूर्त में अध: प्रवृत्त करा कर अपूर्व करण, अनिवृत्ति कररण गुणस्थान में जा पहुँचे । यहाँ पृथक्त्व fan नामा प्रथम शुक्लध्यान धारण कर मोह-राजा का कवच तोड़ डाला, चारित्र मोह की धज्जी उड़ायी और चारित्र पताका फहराते बढ़ने लगे । स्थिति काण्डक, अनुभाग कांड घात, गुण श्रेणी निर्जरा और गुण संक्रमण से बलवान शत्रुओं को निर्बल कर अनुक्रम से सूक्ष्म साम्पराय नामा दसवें गुरणस्थान में पहुँच एकत्व वितर्क शुक्लध्यान का श्रालम्बन लिया । यहाँ सूक्ष्म लोभ को भी समाप्त कर बारहवें श्री-कषाय में कदम जा घरा । यहाँ मोहनीय के निश्शेष हो जाने से स्नातक संज्ञा प्राप्त की । पुनः एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अत्यन्त उद्धत अन्तराय कर्म को जड़ से जलाकर भस्म कर दिया । इस प्रकार एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यानानल से चारों घातिया कर्मों की इति श्री कर भगवान ने ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट पर्याय - केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। वे अनन्त चतुष्टय - अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य के धनी तथा क्षायिक नव लब्धियों के भोक्ता बन गये । इस प्रकार वृषभदेव फाल्गुन कृष्णा एकादशी उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवली भगवान हुए । समस्त दिग्मंडल प्रकाशित हो उठा । ज्ञान स्वभाव का पूर्ण प्रकट हो जाना हो केवलज्ञान है । I केवलज्ञान कल्याण महोत्सव . ऋषभदेव वस्तुतः त्रैलोक्याधिपति हुए । राजा का कर्तव्य प्रजा को सुखी करना है | भगवान द्वारा भी तीनों लोक सुखी होना चाहिए। अस्तु, प्रभु केवली हुये । स्विच् संचार हुआ । सौधर्मेन्द्र के विमान में रिंग बज उठी। कल्प वासियों के घंटा नाद, ज्योतिषियों के सिंहनाद, व्यंतरों के नगाड़े की ध्वनि और भवन वासियों के यहाँ सबको जाग्रत करने वाला नाद गूंज उठा। सभी अपनी-अपनी सेना विभूति और [ ४५
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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