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प्रकार भिक्षक बने घर-घर घमते रहे, अवश्य इसका कोई विशेष कारण होना चाहिए। जैनागम में कर्म सिद्धान्त अपना विशेष महत्व रखता है। इसका कार्य निष्पक्ष, समदर्शी और बिना किसी चूस बाजी के चलता है। भगवान ने राज्यावस्था में प्रजा की पुकार सुन, उनके दु:ख निवारण के लिए उपदेश दिया था कि "तुम्हारा धान्यादि खाने वाले बैल, गाय, भैस, बछड़ा आदि के मुख में मछीका लगा दो। बस उनका अन्नपान निरोध कराने से होतीद भोगान्तराय कर्म बंध गया जिसने मौका पाते ही अपना दाब चुक लिया । तीर्थङ्कर को भी कर्मफल ने नहीं छोड़ा तो अन्य की क्या बात ? अत: प्रति समय परहित के साथ स्वहित को दृष्टि में रखकर कार्य करना परम विवेक पूर्ण है । केवमशानोत्पत्ति---
मोक्ष मार्ग प्रकाशक उग्रोग्र धोर तपस्वी महा-मुनिराज भगवान कर्मों की होली जलाने में सन्नद्ध हुए । अपने पंच महाव्रतों को शुद्ध करने के लिए सतत उनकी पच्चीस भावनाओं का चिन्तवन करते थे। १२ प्रकार का तप, १० प्रकार धर्म और चार प्रकार अाराधनाओं में सदा सावधान थे। तीनों गुप्तियां उनके प्रास्त्रक को रोकने वाली दल अर्गला थी। वे भगवान जिनकल्पी थे। जिसके प्रस', संयम, नियम, यम ध्यान में किसी प्रकार का दोष न लगे, अर्थात् प्रतिक्रममा, छेदोपस्थापना जिनके न हो, जो मात्र सामायिक चारित्र में ही लीन रहें, उन्हें जिनकल्पी कहते हैं । वे स्वभाव से हो पंचाचारों का पालन करते थे। वर्षा योग अभ्रावकाश योग, वृक्षमूलाधि-वास योग, बेला, तेला, पंच, पंचदश, मासोपवास, प्रादि द्वारा वृहद् सिंह निष्कोडित, कनकावली, रत्नावली आदि प्रतों द्वारा काय क्लेश करते हुए आत्म शक्ति का पोषण करने लगे । एक मात्र सिद्ध पर्याय रूप होना ही जिनका लक्ष्य था, वे भगवान १ हजार वर्ष तक घोर तप: साधना में संलग्न रहे । तपश्चरण रूपी अग्नि में कर्म रूपी इंधन घाय-धीय जल रहा था । प्रति समय असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा हो रही थी । आत्मा रूपी सुवरी कुन्दन पर्याय में प्रा रहा था । इसी का ध्यान था उन्हें । वे एकान्त, निर्जन प्रदेश में ध्यानस्थ हो कई दिन बिताते थे । प्रात्म स्वभाव में तल्लीन प्रभु निश्चय स्वाध्याय करते थे । नाति शीत उष्ण, निरापद-पशु-पक्षी रहित, निर्जन्तुक स्थानों का सेवन करते थे । परमोपेक्षा संयम को शिर का कवच बनाया, तथा अपहृत संयम को शरीर का कवच बनाया। परिणामों की विशुद्धि