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कर रहे थे । जगत और काय से विनश्वर स्वभाव का विचार करने में लगे थे । मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ और कस्सा भावनाओं में निमग्न थे । यथायोग्य 'ईयपथ' शुद्धि से प्रत्येक घर के सामने से विहार करते हए राज मन्दिर में प्रविष्ट हुए दूर ही से देखकर द्वारपाल दौड़ा और अपने भाई श्रेयान् के साथ बैठे राजा सोमप्रभ को प्रभु के प्रागमन की सूचना दी। दोनों भाई परम भक्ति, विनय से रणवास, सेनापति और मन्त्री के साथ प्रांगन के बाहर आये और भगवान को अतिः विनय से नमस्कार कर रत्नचूर्ण मिश्रित जल का अचं दिया । प्रदक्षिणा दी। दोनों भाई खड़े हो प्रभु से कुछ कहना ही चाहते थे कि उसी क्षण श्रेयान कुमार को जातिस्मरगा हो गया। पूर्व भव में महारानी श्रीमती की पर्याय में अपने पति बनजंध के साथ जो दो चारण मुनियों को पाहार दान दिया था वह दृश्य प्रत्यक्ष उनके सामने आ गया। श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, शक्ति और त्याग इन सात दाता के मूरणों से युक्त श्रेयान करबद्ध शिरोमत हो बोल उठा "हे स्वामिन् अत्र अत्र, निष्ठ तिष्ठ, नमोस्तु प्रभो ! मन, वचन, काय, शुद्धि पूर्वक आहार जल शुद्ध है । शास्त्रोक्त विधि से तीन प्रदक्षिणा देकर पड़गाहन किया, उच्च स्थान दिया. पाद प्रक्षालन कर पूजा की और मन, वचन, काय एवं प्राहार शुद्धि पूर्वक प्रभो के कर पात्र में सर्व प्रथम प्रासुक इक्षुरस का आहार दिया । इसी प्रकार राजा सोमप्रभ ने भी अपनी पत्नी लक्ष्मीमती महारानी के साथ नवधाभक्ति पूर्वक इक्षरस का आहार दिया ।
पञ्चाश्चर्य
भगवान का १३ महीने १ दिन बाद निरंतराय प्रथम प्रहार सम्पन्न हया । लक्षण देवों द्वारा आकाश से १-रत्न वर्षा होने लगी । २-अति सुगंधित पुष्पों की वर्षा प्रारम्भ हुयी, ३-देव दुन्दुभी बजने लगी ४-मन्द्र-मन्द प्यारा-प्यारा सुगंधित पवन बहने लगा और ५-अहो, धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता, जय हो, जय हो नाद अाकाश में गूंज उठा । इस प्रकार पचाश्चर्य होने लगा।
दोनों भाई फूले नहीं समाये । उन्होंने अथाह पुण्य मंत्रय किया । अन्य अनेक लोगों ने इस दान की अनुमोदना कर महान् पुण्यार्जन किया । कौतुहल से भरे दोनों भाइयों ने बार-बार भगवान को नमस्कार किया। भगवान भी श्राहार कर वन की ओर प्रस्थान कर गये। पीछे४२ ]