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अपना स्वामी स्वीकार कर उत्सव मनाया | सच्ची भक्ति का फल are fमलता है। जिन भक्ति सदा सुखदायी है ।
आहार चर्या मार्ग
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षट्मास का योग समाप्त हुआ । भगवान ने विचार किया कि यद्यपि मेरा शरीर बिना आहार के भी चल सकता है, किन्तु भागे अन्य हीन संहनन वाले साधुओं को चर्या मार्ग प्रवर्तन करना आवश्यक है । "अस्तु, वे निस्पृह मुनिराज आहार के लिए चार हाथ प्रमाण आगे देखते हुए मध्यमगति से निकले अनभिज्ञ प्रजाजन प्रभु को नगर की ओर आते देखकर नाना प्रकार की भेंट लिए बागवानी को प्राने लगे। कोई रत्न, हीरा, मोती लाया तो कोई हाथी, घोड़े, बैल आदि । कोई वस्त्राभूषण लाये तो कोई कन्या रत्न लिए मुनिराज को प्रसन्न करने की वेष्टा करने लगे। कितने रथ, पालकी भेंट करते । मुनिराज प्रतिदिन चर्या को आते और बिना आहार किये वन में लौट जाते । कारण कि उस समय किसी को पगहन विधि, नवधाभक्ति करने का ज्ञान ही नहीं था । साधु मार्ग से सब अनभिज्ञ थे । श्रावक धर्म भी नहीं जानते थे । सबको महत्ती चिन्ता हो रही श्री । क्या करें ? नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ लाकर सामने रखते । प्रार्थना करते प्रभो हमारे अपराध क्षमा करो, हम पर प्रसन्न होयो । जो चाहो ग्रहण करो। किन्तु उत्तर कौन देता । प्रभु तो मौन थे । विधि के अभाव में आहार भी नहीं ले सकले थे। कितने ही पानक, इलायची, लवंग लाते और रो-रो कर प्रभु खाने का आग्रह करते । सब हैरान थे क्या करें क्या नहीं | स्वयं राजा भरत भी इसमें सफल न हो सकें । इस प्रकार जंगल को चकित करने वाली गुप्तचर्या से विहार करते हुए ७ महीने ८ दिन और बीत गये परन्तु किसी को भी आहार दान विधि ज्ञात न होने से भगवान का आहार नहीं हुआ |
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वानत थं प्रवर्तन
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युवराज श्रेषान् याज प्रतिशय प्रसन्न थे । प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त हो आनन्द से सभा में जा पहुँचे । महाराज सोमप्रभ भाई का तेज देखकर हर्ष से बोले, कुमार आज क्या बात है, तुम्हारी कान्ति अनोखी दिखलाई पड़ रही है। विस्मय और आनन्दकारी घटना क्या
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