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________________ आप ? वृद्धावस्था में बुद्धि छोड़कर भाग जाती है। बिना पूछे ताछे दूसरों के कार्य में दखल डालना क्या मूर्खता नहीं ? आपका तत्त्वज्ञान, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र ग्राप ही के पास रहने दीजिये | भगवान हमारे गुरु हैं गुरु की प्रसन्नता उभय लोक में सुख देने वाली है । हम अपने गुरु को प्रसन्न कर रहे हैं। महासागर को छोड़कर साधारण तालाब के पास क्यों जायें ? कल्पवृक्ष का त्याग कर बबूल के पास क्या जाना ? चिन्तामरिण को छोड़कर कांच के टुकड़े को लेना क्या बुद्धिमानी है ? आप व्यर्थ कष्ट न करें | अपना रास्ता देखें । हम स्वयं भगवान से निपटलेंगे । श्राप पधारिये । artiन्द्र इनके भोले और मीठे बोलों को सुनकर तथा भगवान के प्रति उनकी अटूट भक्ति और अप्रतिम श्रद्धा को देखकर मन ही मन आनन्दित हो रहा था इनके स्वाभिमान पर वह न्योछावर था । प्रसन्न होकर वह बोला, कुमार हो ! आप तरुण होकर भी बुद्धि कौशल से वृद्ध समान हो । तुम्हारे वीर, वीर, निष्कपट अन्त्ररणों से मैं प्रसन्न हूँ, मैं नागकुमार जाति के देवों का इन्द्र हूँ। मेरा नाम धरणेन्द्र है । मैं भगवान ऋषभदेव का सेवक हूँ। "प्रभु ने मुझे आज्ञा दी है कि ये कुमार बड़े भक्त हैं इसलिए इन्हें इच्छानुसार भोगोपभोग की सामग्री दे दो ।" अतः आपको इच्छित राज्य देने आया हूँ आप मेरे साथ श्राइये। विश्वास दिलाकर कि मैं भगवान की आज्ञानुसार ही दे रहा हूँ। उन्हें लेकर विमान द्वारा आकाश मार्ग से शीघ्र ही विजयार्द्ध पर्वत पर पहुँच कर विद्याधर लोक को देखा । यह पर्वत मूलभाग में बड़े योजन से ५० योजन चौड़ा, २४ योजन ऊँचा, और ६ ( सवा छ ) योजन पृथ्वी में गड़ा था । १०० योजन लम्बा था । श्ररन्द्र ने वहाँ के कृत्रिम जिनालय, कोट, खाई, वन, नदी यादि को दिखलाया. किन्नर - किन्नरी समान विद्यावर विद्याधरियों से इनका परिचय कराया । उनसे कहा, देखो ये दोनों राजकुमार हैं, भगवान वृषभदेव स्वामी की आज्ञा से आये हैं ये आपके राजा हैं। आप इनकी श्राज्ञानुसार प्रवृत्ति करें | "भगवान की आज्ञा है" यह सुनकर सभी ने इनको राजा स्वीकार किया । विजयार्द्ध की दक्षिण श्रेणी में ५० नगरियाँ है इनका अभिपति 'नमि' को बनाया और उत्तर की ६० नगरियों का राजा 'विनमि' को बनाया | स्वयं धरणेन्द्र ने इनका पट्टाभिषेक किया दो विद्याएं दी और विद्याओं की सिद्धि का क्रम बतलाया । समस्त विद्याधरों ने भी इन्हें { ३६ -------
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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