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________________ बोले, "तुम्हारा शरीर, अवस्था और अनुपम शील यदि विद्या-विभूषित किया जाय तो ही सार्थक है। स्त्री का शिक्षित, विद्यायुक्त होना पर.. मावश्यक है । विद्या, हित-कल्याण एवं समस्त सुख सौभाग्य को देने वाली होती है। महिलाओं को विदुषी होना पुरुष से भी अधिक प्रावश्यक है । प्रस्तु, पामो तुम्हें सुख की सार विद्या सिखाऊँ । इस प्रकार कह सुवर्णपट लेकर दाहिने हाथ से लिपि...-अ, आ, इ, ई, प्रादि अक्षर लिखे और बाँये हाथ से इकाई, दहाई आदि अंकों द्वारा संख्या लिखी । "नमः सिद्धं" उच्चारण कर सिद्ध मालिका--वर्णमाला प्रकार से हकार पर्यन्त, विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय एवं योगवाह पर्यन्त अक्षरावली अतिशय बुद्धिमती ब्राह्मी को धारण करायासिखाया तथा सुन्दरी ने संख्या ज्ञान किया । गरिणत शास्त्र में नैपुण्य प्राप्त किया। व्याकरण, छन्द, अलंकार आदि का संशय, विपर्यय रहित अध्ययन कराया 1 नारी की महत्ता स्थापित की । गुरु के अनुग्रह और ब्रह्मचर्य के तेज से समस्त विद्याएँ स्वयं प्राजाती हैं फिर स्वयं सरस्वती की अवतार स्वरूपा ये क्यों न विद्या प्रकाश से प्रकाशित होती ? बड़ी पूत्री ब्राह्मी के नाम से ही ब्राह्मी लिपि प्रख्यात चली आ रही है । चकि पुरुष की अपेक्षा कन्याओं का उत्तरदायित्व अधिक होता है इसीलिए प्रभ ने प्रथम कन्याओं को सुशिक्षित कर पुन: पुत्रों को विद्याध्ययन कराया । ज्येष्ठ पुत्र भरत को नीति-शास्त्र, नृत्य-शास्त्र पढ़ाया, वृषभसेन को गंधर्व-शास्त्र-गाने बजाने की कला-शास्त्र, अनन्त विजय को चित्रकला विद्या, सुत्रधार मकान बनाने की कला सिखलायी तथा प्रथम कामदेव श्री बाहवलि पुत्र को काम शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, धन्वंद, अश्व गजादि परीक्षा, रत्न परीक्षा प्रादि शास्त्रों का सम्यक उपदेश दिया अर्थात् अध्ययन कराया । संसार में जितनी कला, विद्या हो सकती हैं सभी प्रभु ने अपने बच्चों को सिखलाकर नैपुण्य प्राप्त कराया । प्रभ से प्राजीविका को प्रार्थना __ अनुकूल दाम्पत्य सौख्य और सन्तति प्रामोद-प्रमोद में बहुत-सा काल अग्रतीत हो गसा ! काल की गति के साथ जीवन के साधनभूत बिना बोये धान्यादि पदार्थों के रस, औषधि रूप पाक्तियाँ, स्वाद आदि नष्ट प्राय: हो गये । फलतः प्रजा भूख-प्यास की पीड़ा के साथ रोगादि व्याधियों से भी आक्रान्त हो गई । व्याकुल चित्त प्रजा महाराज नाभि २८ ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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