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राज की शरण आई और अपना दुःख निवेदन किया । महाराज ने प्रजा. को शान्त्वना देते हुए वृषभदेव के समीप आने की आज्ञा दी । तदनुसार समस्त प्रजा मस्तक नवा, हाथ जोड़ प्रभु से प्रार्थना करने लगी "भगवन, हम क्षुधा-तृषा से पीड़ित अनेक रोगों के शिकार हो गये हैं क्योंकि अब धान्य उगते नहीं जो थे वे सूख गये उनका रस भी सूख गया । अब हम क्या करें ? किस प्रकार जीवन धारण करें? कल्पवृक्ष समूल नष्ट हो ही गये । अब तो आपकी ही शरण हैं, आप ही कल्पतरु हैं । हमें जीवनदान दीजिये । अब हमारा क्या कर्तव्य है ? आपकी प्राज्ञा प्रमाण है। जीवनोपाय..
पिता को जिस प्रकार सन्तान प्रिय और प्रतिपाल्य होती है उसी प्रकार राजा को प्रजा भी भगवान आदीश्वर ने प्रजा की पूकार सून अपने विशद अवधिज्ञान से निर्णय किया कि "पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह में जिस प्रकार को स्थिति है बही स्थिति आज यहाँ भी होना चाहिए। वहीं इनके जीवन रक्षरण का उपाय होगी।" प्रस्तु, प्रभु ने स्मरण किया और उसी क्षण वहाँ इन्द्र या उपस्थित प्रा । प्रादीनाथ स्वामी (राजा) में इन्द्र को असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या और बारिणज्य इन षट्कर्मों की प्रवृत्ति प्रारम्भ करने का आदेश दिया। माज्ञा पाते ही इन्द्र अपने कर्तव्य में रत हुअा।
इन्द्र ने देखा यह दिन शुभ नक्षत्र, शुभ मूहर्त, शुभ लग्न और शुभ ग्रहादि से युक्त है अतः प्रथम मंगल क्रिया कर सर्व प्रथम अयोध्या के मध्य भाग में जिन मन्दिर की रचना की। क्योंकि धर्म पुरुषार्थ के आथित ही अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ सिद्ध हो सकते हैं । पुनः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, और उत्तर में क्रमश: जिनालयों की रचना की। तदुपरांत ५२ देशों की रचना कर अन्य अनेकों विभाग निर्धारित किये। नगर, शहर, गाँव, गली, मकान, कोट, खाई, बाइ (कांटेदार वक्ष), नदी, नाले, सिंचाई आदि की व्यवस्था की । राजा और राज्य निर्धारित किये । दण्ड, कर वसूल, खेती, व्यापार, पठन-पाठन एवं निम्न
छ कर्मों का यथायोग्य उचित विभाजन एवं प्रयोग करना प्रभ ने सिखाया । १. शस्त्र धारण कर सेवा करना असि कर्म है। २. लिखकर जीविका करना मसि कर्म है। ३, पृथ्वी को जोतना-बाना, धान्यादि पैदा करना कृषि कर्म है। ४. शास्त्र अर्थात् नत्य मानादि