________________
युगल देवियों सहित प्रभ साक्षात कामदेव को भी तिरस्कृत करते हुए शोभने लगे।
मोगकाल... ___काम भी एक नशा है । जो इसकी ओर ताका कि उन्मत्त हो गया | स्वभाव से विरक्त चित्त प्रभु का मन पञ्च कामवारणों से विध गया । यूगल पलियों की रूपराशि में उलझ गया। कमल पराग से मत भ्रमर जैसी दशा हो गई । वर्षों गुजर गये । अग्नि तो ईधन मिलने पर जलती है और नहीं मिलने पर बुझ जाती है, किन्तु मोहाग्नि उभयत्र प्रज्वलित रहती है । फिर भोगोपभोग की असीम सामग्री रहने पर यह क्यों चुप बैठती । समय जाता रहा । प्रानन्दोत्सव बिखरते गये। चक्रवर्ती का जन्म.....
महादेवी यशस्वती स्वनाम धन्या थी। उसके सौभाग्य का यश पराग चारों ओर अभिव्याप्त था। एक दिन शयनकक्ष में सोते हए रात्रि के पिछले प्रहर में चार शुभ स्वप्न देखे । प्रथम-मेरु पर्वत समस्त भू-मण्डल को निगल रहा है । दूसरे.....सूर्य, चन्द्र सहित सुमेरु । तीसरे-.. हंस सहित सरोवर और चौथे .....कल्लोलयुक्त सागर देखा । तत्क्षण वन्दीजनों द्वारा मंगलपाठ सुनकर निद्रा भंग हई । जगाने वाले नगाड़े बज रहे थे चारों ओर मंगल आशीर्वाद की ध्वनि गूंज रही थी। यशस्वती महादेवी बड़े हर्ष से प्रफुल्ल, पालस्य रहित उठीं। शीघ्र ही पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर नित्य क्रिया से निवृत्त हो अपने प्रागनाथ श्री वृषभदेव स्वामी के पास प्रा अद्रसिहासन पर विराजमान हुई । क्यों न होती नारी का अधिकार नर से कम नहीं, यह बताना था प्रभ को । पुनः विनम्र कर युगल जोड़ रात्रि के स्वप्नों का फल पूछा। स्मितानन प्रभु ने कहा क्रमश: चरम-गरीरी, संसारातीत अवस्था पाने वाला, इक्ष्वाकु कुल का तिलक, सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र होगा। मानों गोद में सलौना चाँद-सा पुत्र आ गया हो; इतना हर्ष हुना, स्वप्न फल सुनकर रानी को।
सर्वार्थसिद्धि का अहमिन्द्र च्युत होकर श्री सुनन्दा देवी के गर्भ में पा विराजा । शनैः शनैः गर्भ वृद्धिंगत होने लगा । पलक मारते नवमास पूर्ण हो गये । परिमण्डल से मण्डित सूर्य के समान तेजस्वी, प्रतापी पुत्र २६ ]