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लगी । प्रियकारिणी सिन्धु देश की वैशाली नगरी के राजा चेटक की रूपवती एवं बुद्धिमती पुत्री थी। अभिमान से अछूती, सतत् सिद्ध पर haar के गुणों में अनुरक्ता थी । वह सच्ची पतिव्रता थी। उसकी सेवा से महाराज सिद्धार्थं प्रति प्रसन्न थे, उनका अनुराग भी इनके प्रति सर्वोपरि था । वह दया की प्रवतार थी । नौकर-चाकर साधारण जन भी उसके प्रेम पात्र और अनन्य भक्त थे । वह सतत् उनके विघ्न निवारण की चेष्टा करती थीं। सिद्धार्थ महाराज नाथवंश के शिरोमणी ये | त्रिशला को पाकर अपने को पवित्र मानते थे। प्रियकारिसी ( त्रिशला ) के ६ बहिने और थीं । जिनमें श्रेणिक महाराज की पत्नी चेलना भी थी । रत्नवृष्टि के साथ रुचकगिरि वासिनी देवियाँ ५६ कुमारी देवियाँ तथा अन्य अनेकों देवियों इस महादेवी की सेवा, चाकरी मनोरञ्जन, स्नान, श्रृंगार, भोजन-पान कराने में संलग्न हो गईं । इन चिह्नों से महाराज सिद्धार्थ को निश्चय हो गया कि अवश्य कोई महापुरुष का अवतार होगा ।
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एक दिन आषाढ शुक्ला ६ के दिन उत्तराषाढ नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में त्रिशला देवी सुख निद्रा में सोई थीं। उसी समय उन्होंने शुभ सूचक पवित्र १६ स्वप्न देखे । ग्रन्त में विशाल काय गज (हाथी) को अपने मुख में प्रविष्ट होते देखा । कहना न होगा कि अच्युतेन्द्र गज के बहाने उनके निर्मल, शुद्ध स्फटिक वत् कुक्षि में श्रा विराजा । मंगल बालों के साथ निद्रा भंग हुयी । देवियों द्वारा स्नान, मंजन, मण्डन किये जाने पर देवी माँ अपने पति के पास जाकर स्वप्नों का फल पूछने लगी । अवविज्ञानी से विचार कर सिद्धार्थ महाराज ने कहा हे मनोजे । तुम्हारे नव मास बाद तीर्थङ्कर बालक जन्म लेगा ।" स्वप्नों का फल कहा | उसी समय सौधर्मेन्द्र असंख्य देव देवियों के साथ आया । गर्भ कल्याणक पूजा की। माता-पिता का बहुमान कर वस्त्रालंकारों से पूजा की । अनेक प्रकार गीत नृत्यादि द्वारा आनन्द मना अपने स्वर्ग गया। देवियों को विशेष सेवा की प्राज्ञा दी ।
जन्म कल्याणक
सीप में मुक्ता की भाँति प्रभु निविघ्न, निर्वाध रूप से बढ़ने लगे । माता विशेष सुख, शान्ति, श्रानन्द और स्फूर्ति का अनुभव करने लगीं । उन्हें गर्भजन्य किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ । क्रमशः नव मास
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