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पूर्ण हुए। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र प्राल; श्री त्रिशला महादेवी ने अति मनोज, सून्दर, उत्तम लक्षणों सहित परम पवित्र पुत्र उत्पन्न किया । उस समय सर्वत्र शुभ शकुन हुए । देव, दानव, मानव, मृग, नारकी सबको प्रानन्द हमा। चनिकाय देव पाये, कुण्डलपुर को सजाया, घूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया। देवराज की प्राशा से इन्द्राणी प्रसूतिगृह से बालक प्रभु को लायी । ऐरावत गज पर सवार कर इन्द्र सपरिवार हजार नेत्रों से उनकी सौन्दर्य छवि को निहारता महामेरु पर ले गया। पाण्डकः शिला पर पूर्वाभिमूख विराजमान किया । हाथों-हाथों देवगण १००८ विशाल सुवर्ण घट क्षीर सागर से भर लाये । इन्द्र के मन में विचार पाया कि बालक का शरीर १ हाथ का छोटा सा है, कलश विशाल हैं, कहीं प्रभ को कष्ट न हो जाय । मति. श्रुत, अवधि ज्ञानी उस असाधारण बाल ने अपने अवधि से विचार ज्ञात कर लिया । बस, पांव का अंगठा दबाया कि सुमेरू कांप गया। इन्द्र ने भी अवधि से मेरु कंपन का कारण जान लिया, उनका "वीर" नाम रखा । तत्काल करबद्ध मस्तक नवा, क्षमा याचना करते हुए अभिषेक प्रारम्भ किया। प्रभु पर शिरीष पुष्पवत् वह जलधारा पड़ी । इन्द्राणी आदि ने भी नाना सुगन्धित लेपों से प्रभु शरीर को लिप्त कर अभिषेक किया। वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर भारती उतारी 1 अन्य सब देव-देवियों ने नत्य, गान, स्तुति, जय जय नाद.आदि द्वारा जन्मोत्सव मनाया। देवराज ने इनका '
वमान' नाम प्रख्यात किया । सिंह का चिन्ह घोषित किया । पुन: कुण्डलपुर लाकर माता की अंक को शोभित किया । स्वयं देवेन्द्र ने 'अानन्द नाटक किया।
महाराज सिद्धार्थ ने भी भरपूर जन्मोत्सव मनाया ! दीन-दुखियों को दान दिया । कुमार वर्द्धमान को जो भी देखता नयन हर्ष से विगलित हो जाते थे । इस प्रकार द्वितीया के चांद बत प्रभु शव से बाल
और बाल से कूमार अवस्था में पाये। अल्पायु और अल्पकाल में ही इन्हें स्वयं समस्त विद्याएँ, कला, ज्ञान प्राप्त हो गये। इनके अगाध, प्रकाण्ड पाण्डित्य को देख कर बड़े-बड़े विद्वान दांतों तले अंगुलियां दबाये रह जाते । विद्वत्ता के साथ शूरता, वीरता, साहस, दृढ़ता भी अद्वितीय थी। इनके काल में अनेकों मत-मतान्तर, पाखण्ड प्रचलित थे । हिंसा को धर्म मानते । धर्म के नाम पर अनेकों पशुओं की बलि, हत्या साधारण बात हो गई थी। इनके दयालु हृदय, करूणामयी वात्सल्य