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सविधि अभिषेक पूजा की। उसे देखने को विपुलमती नाम के मुनिराज पधारे । राजा ने विनय पूर्वक उनकी वन्दना की विनय से उच्चासन प्रदान कर सद्धर्म श्रवण किया । पूजाविधि समाप्त कर उसने विनम्रता से प्रश्न किया 'गुरुदेव, जिनेन्द्र प्रभ को प्रतिमा अचेतन है, वह किसी का हिताहित नहीं कर सकती फिर उसकी पूजा करने से क्या लाभ है ? शान्त चित्त, प्रसन्न मुद्रा मुनिराज बोले, राजन प्रापका कहना सत्य है, जिन प्रतिमा जड़ रूप है, किसी को कुछ दे नहीं सकती । परन्तु उसके सोम्य, शान्त प्राकार को देखकर हृदय में वीतराग भादों की तरंभ लहराने लगती हैं, शान्त भाव, साम्य भाव, उटने लगते हैं, कषाय यात्रुओं की धींगाधींगी एकदम बन्द हो जाती है । प्रात्मा के सच्चे स्वरूप का पता चल जाता है । जिस प्रकार की उपासना की जाती है उसी आकार का प्रतिबिम्ब हृदय पर अंकित होता है । परम वीतराग मुद्रा रूपी मूत्ति का दर्शन करने से राग-द्वेष का शमन होता है। जैसा कारण वैसा कार्य होता है । अत: जिन चैत्य और चैत्यालय के दर्शन से पूजन से अशुभ कमों की निर्जरा होती है, पापबन्ध रुक जाता है, पुण्यबन्ध होता है । इसलिए प्रथम अवस्था में जिनेन्द्र प्रतिमाओं की अर्चा-पूजा करना अत्यावश्यक है। फिर इसके प्रभाव में "श्रावकत्व" भी सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार कह उन मुनीश्वर ने प्रकृत्रिम चत्यालमों का वर्णन करते हए आदित्यविमानस्थ जिनालय और श्री पधप्रभु जिन विम्ब का विस्तृत वर्णन किया।
राजा ने सूर्य विम्बस्थ जिन विम्बों को लक्ष्य कर भक्ति से नमस्कार किया। समस्त प्रजा ने उसका अनुकरण किया। पूनः उसने सूर्य विमान के आकार का चमकीले रत्नों से विमान बनाकर उसमें १०० रत्नमयी जिनविम्ब प्रतिष्ठित करा कर पूजा करने लगा तभी से सूर्य नमस्कार और पूजा की प्रथा प्रारम्भ हुयी, जो अाज मिध्या रूप से प्रचलित है ।
एक दिन राजा ने अपने शिर में सफेद बाल देखा । मृत्यु का वारेण्ट है, सोचकर बराग्य उत्पन्न हुआ, ज्येष्ठ पुत्र को विशाल राज्य समपित कर स्वयं समुद्रदत्त मुनिराज के चरणों में दीक्षा धारण की। चारों आराधनाओं की आराधना की । परम विशुद्ध हृदय से १६ कारण भावना भायी। ग्यारह अङ्ग के पाठी हए । तीर्थकर पुण्य प्रहाति का बंध किया । प्रायोपगमन सन्यास धारण कर क्षीर बन में ध्यानस्थ हो गये । निसंकुल प्रात्मध्यान करने लगे। उसी समय पूर्वभव का वैरी
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