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मार्गशीर्ष शुक्ला पौर्णमासी के दिन अश्विनी नक्षत्र में तीसरे शुक्लध्यान घनञ्जय में अशेष घातिया कर्मों को भस्म कर अनन्त ज्ञान-केवल ज्ञान उत्पन्न किया । भाव विशुद्धि से क्या प्रसंभव है ? कुछ नही । अन्तमुंहत में मुनीन्द्र 'महंत' हो गये जमत पूज्य बन गये। इस दशा को कौन्द नहीं चाहेगा? सभी चाहते हैं, पर फल चाहने मात्र से नहीं, कार्यरूप परिणत करने पर ही प्राप्त होता है | चिह विशेषों से ज्ञात कर इन्द्र समस्त देवों को लेकर पाया । केवलज्ञान कल्याणक पूजा की । उत्सव मनाया । १००८ नामों से स्तवन कर अपूर्व पुण्याजन किया ।
धनपति ने समवशरण रचना की। यह २ योजन अर्थात् + कोश लम्बा चौड़ा वृत्ताकार था। इसके मध्य विराज कर सर्वश प्रभु की दिव्यश्वनि प्रारम्भ हयी। यह मण्डप अाकाश में भूमि से ५०० धनुष ऊंचा था। चारों ओर प्रत्येक दिशा में २०-२० हजार सुवण की सीढियों थीं। इन्हें 'वकुल' वृक्ष के नीचे केवलज्ञान हुमा इससे यह प्रशोक वृक्ष कहलाया।
समवशरण में सुप्रभार्य प्रादि १७ गणधर थे, ४५० ग्यारह अंग १४ पूर्व के पाठी थे, १२६०० पाठक-उपाध्याय थे, १६०० अवधिज्ञानी, १६०० केवलज्ञानी, १५०० विक्रिया ऋद्धि वारी, १२५० मन: पर्ययज्ञानी एवं. १००० बादी मुनिराज थे । इस प्रकार सम्पूर्ण मुनिराजों की संख्या २०००० थी। भार्गक श्री (मंगला) को आदि ले ४५००० प्रायिकाएँ थीं । अजितजय को प्रादि ले १ लाख धारक और ३ लाख भाविकाएँ थीं। विद्युत्प्रभ यक्ष और चामुंडी (कुसुम मालिनी) यक्षी थी । इस प्रकार अनेक देशों में विहार कर भव्यात्मानों को मोक्षमार्ग दर्शाकर योग निरोध किया । मोगनिरोध...
आयु का एक महीना शेष रहने पर भगवान ने दिव्यध्वनि बन्द कर दी । सम्मेद शिखर पर भित्रधर कुट पर प्रतिमा योग बारण कर विराजे । १००० मुनिराजों के साथ प्रात्मलीन हुए ! अन्त में तृतीय शुक्ल ध्यान का प्रयोग कर ८५ प्रकृतियों का संहार करने लगे। मोक्षकल्याणक
अन्त में वैशाख शुक्ला १४ के दिन प्रातःकाल अश्विनी नक्षत्र में नमिनाथ स्वामी ने अउ ऋ ल लध्वक्षर उच्चारणकाल प्रमाण चौथे
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