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नांना विथ रत्नालंकारों से सजाया । दिव्य वस्त्र पहनाये । 'उत्तरकुरू" नामकी दिव्य पालकी में विराजमान किये । बड़े-बडे राजाओं में प्रथम ७ कदम तक पालकी उठायी । पुनः देवतागण वियद् मार्ग से ले उडे । क्षारण भर में चित्रवन में जा पहुँचे । वह 'चित्रवन' यथा नाम तथा गुण था । यहाँ सुन्दर शुद्ध-स्वच्छ शिला पर पूर्वाभिमुख विराजे । दो दिन उपवास की प्रतिज्ञा की, पञ्चमुष्ठी लौंच किया, वाह्याभ्यन्तर परिग्रह त्याग स्वयं सिद्ध साक्षी में १००० राजाओं के साथ सकल संयम धारण किया और प्रात्मध्यान में तल्लीन हो गये। प्राषाढ कृष्णा १० मी के दिन अश्विनि नक्षत्र में संध्या समय दीक्षा ली। इन्द्र ने दीक्षा कल्याणक पूजा को । केशों को रम पिटारे में ले क्षीरसागर में क्षेपण किया। तप धारण के साथ ही मन: पर्यय ज्ञान भी उत्पन्न हो गया। इन्द्र लप कल्याणक महोत्सव कर अपने स्थान पर गया।
वर्या-विहार....
__कारण है लो कार्य होता ही है। समर्थ ध्यान के रहते असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा के साथ प्रभु योगिराज ने दो दिन पूर्ण किये। तीसरे दिन औपचारिक रूप से पाहार की इच्छा से वन से चर्या मार्ग से चले । ईर्यापथ शुद्धि पुर्वक परम दयालु, अहिंसक मुनिराज 'वीरपुर' नगर में प्रविष्ट हुए । शुभ शकुनों से सावधान राजा दत्त ने सप्तगुण युक्त हो नवधा भक्ति से क्षीराम का प्रासुक, शुद्ध निर्दोष साहार दिया। इससे उसके घर पञ्चाश्चयं हुए । मुनीन्द्र प्रहार कर, बन विहार कर गये ।
छमस्थकाल --
सर्वज्ञता पाने के पूर्व प्रखण्ड मौन से साधना ध्यानादि करना प्रत्येक तीर्थर का कर्तव्य है। अस्तु मुनीश्वर नामिनाथ भी लगातार ६ वर्ष तक शुद्ध मौन से तपोलीन रहे । विहार भी मौन पूर्वक किया ।
सर्वशता-केवलज्ञान कल्याणकोत्सव-... ____ नव वर्ष का दीर्घकाल तपः साधना से प्रात्म शोधना करते वे जिनमुनि प्रपने. दीक्षावन-चित्रवन में पधारे। दो दिन का उपवास धारण किया । मोलिश्री-नकूल वृक्ष के नीचे विराजे । शनैः शनै: ध्यानालीन प्रभु ने घातिया कर्मों को क्रमश: छेदना प्रारम्भ किया ।
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