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________________ नमिनाथ कुछ समय बाद तीर्थङ्कर होकर-सर्वज्ञ हो भव्यों का कल्याण करेंगे" हे नाथ ! उनकी दिव्य धारणी सुनकर आपके दर्शनों की तीव्र Sal अभिलाषा से स्वर्ग से हम यहाँ पाये हैं। महाराज ने सब सुना और अपने नगर में लौट पाये। इस घटना से उनके मानस पटल पर पूर्व भव चलचित्र की भाँति छा गया । वैराग्य घटा उमड़ पड़ी । वे विचारने लगे "यह जीव नट की भौति ऊँच-नीच गलियों में भेष बना-बना कर नृत्य कर रहा है । क्या मुझ जैसे सत्पुरुष, कुलीन मानव को इस प्रकार भटकना शोभनीय है ? मैं दिगम्बर मुद्रा धारण कर इस सत्रकार कर्म शत्रु को समूल नष्ट करूगा ? इस प्रकार विचारते ही लौकान्तिक देव जय-जय घोष करते प्रा पहुँचे । धन्य-धन्य कर अति हर्ष से उनके विचारों की पुष्टी की । अनुमोदना की। क्रमण कल्याणक - नमिनाथ महाराज ने अपने सुप्रभ' पुत्र को बुलाकर राज्याधिकारी बनाया। उसी समय इन्द्र सपरिवार पाया। प्रभ का दीक्षाभिषेक किया। २२
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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