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नाये । भगवान के कान स्वभाव से छिदे रहते हैं 1 कुण्डल, मुकुट, हार, अङ्गद प्रादि पहना कर निरंजन प्रभु की आँखों में अंजन अमाया, तिलक लगाया । पुनः दृष्टि दोष निवारणार्थ नीराजना की । देवेन्द्रों ने सुगंधित चूर्ण एक दूसरे पर डालकर महोत्सव की मानों वृद्धि की (होली खेली)।
भगवान के शरीर पर १००८ लक्षण और ६०० व्यञ्जन होते हैं। इनमें से दाहिने पैर के अंगूठे में जो चिह्न होता है वही लाञ्छन या चिह्न मान लिया जाता है।
पूर्ण सुसज्जित प्रभु को इन्द्र की गोद में बिठाकर उनकी रूपराशि को बारम्बार निरखने लगी इन्द्र ने तो एक हजार नेत्र बनाकर देखा। अपूर्व आनन्द से भरे इन्द्र, इन्द्राणी देव देवियों ने नाना प्रकार से मंगल बाक्यों, वाद्यों, जयनादों से भगवान की स्तुति की, गुनगान किया ।
पुनः अयोध्या लौटे...
जिस उत्सव, सम्भ्रम और वैभव से लाये थे उसी प्रकार बादित्रघोष, जयनाद के साथ ऐरावत हाथी पर प्रासीन प्रभ को अयोध्या लाये । ध्वजा, पताका, छत्र, चामर, गीत, नृत्य आदि धूम-धाम से वह गजेन्द्र नाभिराज के प्रांगन में प्रा उतरा। अयोध्या नगरी स्वयं कुवेर द्वारा निर्मित, ध्वजा, पताकानों से मज्जित, मरिगचित्त सुवर्ण शिखरों मे मण्डित थी । इन्द्र के वैभव से द्विगुगित छवि हो गई । अमुल्य रत्नों से पूरित नाभिराजा के आंगन में प्रवेश कर इन्द्र ने प्रभु को सिंहासन पर बिठाया । इन्द्राणी ने माता की माया निद्रा समेटी। नाभिराय का रोम-रोम उल्लसित हो गया । माता जैसे निद्रा से उठी कि रोमानित हो प्रभु को निहारने लगीं । वे दम्पत्ति प्रानन्दविभोर, विस्मययुक्त कभी इन्द्र इन्द्राणी को देखते कभी प्रभु को और कभी देव सेना को । तदनन्तर पूर्वदिशा के समान शोभित माता और पिता की इन्द्र ने अनेकों वस्त्रालंकारों से पूजा की तथा नाना प्रकार से स्तुति की। भगवान को माता-पिता को अर्पण कर प्राचि सहित इन्द्र ने "ताण्डव नृत्य' किया ।