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________________ लम्बी, पचास योजन चौडाई, और पाठ योजन ऊँची कही है । इसके ऊपर एक उत्तम और ऊँचा सिंहासन है इसके दोनों ओर दो सिंहासन हैं जिन पर सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के इन्द्र खड़े होकर भगवान का अभिषेक करते हैं। यहाँ देवगरण सतत पुजा करते हैं जिससे यह भी पवित्र हो गई हैं। श्री प्रादि प्रभु का जन्माभिषेक... स्फटिक मरिण शिला स्वय स्वच्छ थी तो भी इन्द्र ने क्षीर सागर के जल से सैकड़ों बार उसे धोया। समस्त दर्शक देव-देवी मरण इसे घर कर यथा स्थान बैठ गये । दिकपाल जाति के देव समस्त दिशाओं में यथो चित स्थान पर प्रासीन हुए। देवों की सेना भी गगन से या उतरी । उस समय सुमेरु की छटा से प्रतीत होता था कि स्वर्ग ही प्रा गया है । सोधर्म इन्द्र ने भगवान बालक को पूर्वामिमुख कर मध्यस्थ सिंहासन पर विराजमान किया। चतुर्दिक धादित्र बज रहे थे, जय-जय घास गंज रहा था, सुगंधित धूप धनघटा से घिरा था । देवगण चारों ओर से अक्षत, पुष्प और जल सहित अर्घ चढ़ा रहे थे । इन्द्रो ने अतिविशाल मंडप बनाया था । सर्व प्रथम सौधर्म इन्द्र ने भगवान की स्तुति कर अभिषेक का कलश उठाया दूसरा ऐशान इन्द्र ने लिया। देवों की पंक्ति पांचवें क्षीर सागर तक लगी थी जो हाथों हाथ कलश दे रहे थे । ये कलश ६ योजन महरे, मुख एक योजन और उदर चार योजन प्रमाण था। वे सूवा कलश मसियों से अड़ित थे । पत्रों और पुष्पों से सुसज्जित थे। मालाएं लटक रहीं थीं। एक साथ अनेक कलशों से अभिषेक करने की इच्छा से उन्होंने अनेकों भुजाएँ बना ली थीं। प्रथम धारासौधर्म इन्द्र ने छोड़ी । इन्द्रों के अनन्तर देव, देवियों ने भी इन्द्राणी सहित श्री प्रभु का अभिषेक किया। (हरिवंश पु० ८ सर्ग) उस समय अभिषेक का जल उछलता हुअा आकाश से उत्तरती हयी गंगा के समान दिशा-विदिशाओं में प्रवाहित होने लगा। जलाभिषेक के अनन्तर सुगंधित चर्ण मिश्रित पवित्र जल से अभिषेक कर सुगंधित चन्दन लेपन किया तथा इन्द्राणी ने देवियों सहित दधि दूर्वा रखकर रत्न-दीपक से प्रारती उतारी । स्वच्छ वस्त्र से अङ्ग पोंछा । वस्त्राभूषण पहनाये शची देवी ने सम्यक प्रकार से प्रभ के सुकोमल शरीर को पोंछकर सौधर्म ऐशान स्वर्ग के करण्डों से लाये हए सुन्दर, अमुल्य वस्त्राभूषण २० ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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