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देवी ने मुकुलित बालक को इन्द्र के हाथों में समर्पित किया । इन्द्र जैसे , तेजस्वी, प्रतापी की शाखें भी उस सौन्दर्य-पुकज के तेज से चकमका गई। वह लावण्य सूत्रा के पान से तृप्त ही नहीं हुा । अन्ततः अपनी बिक्रिया ऋद्धि का प्रयोग कर एक हजार नेत्र बनाकर देखा । यद्यपि इससे भी अधाया नहीं । सम्भवतः इससे अधिक उसकी शक्ति ही नहीं होगी । नानाप्रकार से प्रभु का मृणानुवाद किया । अन्त में इन्द्र की माझानुसार "हे देव पाप जयवन्त हो, सवा प्रानन्द स्वरूप रहें." जयथोष से प्राकाश को गुजाते हुए देवगण गगन मार्ग से चल पड़े । ऐरावत हाथी पर आसीन इन्द्र इन्द्राणी भगवान को लिए अतिशय घन्य अपने को मानने लगे । अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। गंधर्व देवों ने गान प्रारम्भ किया । किनर देव गुणगान करने लगे। ऐशान इन्द्र ने सफेद छत्र लगाया था । सानतकुमार और महेन्द्र दोनों क्षीरसागर की तरंगों के समान चमार ढुला रहे थे। . सुमेरुगिरि.....
मेरुपर्वत पर्यन्त. देवगणों का समूह छाया हुआ था। कितने ही मिथ्यादृष्टि देवों को इन जिनेन्द्र भगवान के जन्मोत्सव के वैभव को देखकर श्रद्धा उत्पन्न हो गई । अर्थात सम्यग्दष्टि हो गये । मेरुपर्वत पर्यन्त इन्द्रनील मरिण की सीढ़ियाँ बनाई गयी थी। अनुक्रम से ज्योतिर्मण्डल पार कर इन्द्र ऊपर पहँचा निन्यागावें हजार योजन ऊँचे गिरिराज पर प्राये इसकी चुलिका ४० योजन की है और ऋविमान (प्रथम स्वर्ग) से मात्र १ बाल प्रमाण ही नीचे है। प्रथम ही भूमि पर भद्रसाल बन सघन छाया से सुशोभित है। इससे ५०० योजन ऊपर नन्दन वन है पुनः सौमनस वन ६२५०० योजन पर है । अनन्तर पाण्डक बन शिखर पर्यन्त ३६०० योजन पर सुशोभित है । प्रत्येक वन की हर एक दिशा में १-१ अकृत्रिम जिनालय है इस प्रकार सब १६ जिन भवन है। यहाँ चारणमूनि सतत विहार करते हैं। विद्याधर लोग निरंतर क्रीड़ा करते हैं। उत्तर कूम और देवकर क्षेत्र को मंजदत रूप शाखाओं से रक्षित रखता है । इसकी गुफाएँ इतनी रमणीक हैं कि स्वर्ग के देव और भवनवासी असूरकुमार भी अपने-अपने स्वर्ग विमान और भवनों को छोड़कर यहाँ क्रीडार्थ पाया करते हैं । पाण्डकवन में जिनाभिषेक करने की निर्मल स्फटिकमरिण की शिलाएँ हैं। इनमें एक पाण्डक नाम की शिला उत्तर दिशा में अर्द्ध चन्द्राकार सिद्ध शिला के समान है। यह सौ योजन