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स्ववितरण
अहमिन्द्र का आयुष्य ६ माह रह गई । इधर बंग देश की मिथिला नगरी में इक्ष्वाकु वंशीय महाराज श्री विजय राज्य करते थे। उनकी भट्टरानी वरिपला देवी श्री । दम्पत्ति पुण्य के पुज स्वरूप थे । महादेवी की सेवा के लिए श्री, ह्री, धति प्रादि देवियाँ आयी । प्रांगण में रत्नराशि वर्षण होने लगी। राजा-रानी, राज्य, परिजन सभी प्रानन्द में डूब गये । रुचकगिरि निवासिनी देवियों ने महादेवी की गर्भ शोधना की। इन चिल्लों से उन्हें तीर्थङ्कर उत्पन्न होने का आभास मिल गया था। ६ माह पुरण हो गये।
आश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन अश्विनी नक्षत्र में रात के पिछले भाग में महारानी वप्पिला देवी ने १६ स्वप्न देखे और विशाल हाथी को मुख में प्रवेश करते देखा । प्रातः पलिदेव से स्वप्नों का फल तीर्थङ्कर बालक का गर्भावतरण जानकर पालाद से भर गई। उसी समय स्वय इन्द्र सपरिवार पाया । माता-पिता (राजा-रानी) को नाना प्रकार दिव्य वस्त्रालकारों से पूजा की । गर्भ-कल्याणक पूजा महोत्सव मनाया और देवियों को सेवा में तत्पर कर अपने स्थान को चले गये ।
अम्म कल्याणक महोत्सव ----
धीरे-धीरे गर्भ बढ़ने लगा । परन्तु माँ की उदर वृद्धि नहीं हुई। किसी प्रकार प्रमाद प्रादि विकार प्रकट नहीं हुग्रा । उत्साह, बुद्धि प्रादि गरण वद्धिगत हए । कमश: नत्र मास पूर्ण हए । प्राषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन स्वाति नक्षत्र में तेजस्वी बीर बालक को उत्पन्न किया । उसके दिव्य तेज से प्रसूति मह ज्योतित हो गया। सर्वत्र मानन्द छा गया । नारकियों को भी साता मिली । उसी समय इन्द्र-देवों ने प्राकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया । जन्माभिषेक
प्रातःकाल ही इन्द्राणी प्रसुति गृह में जाकर बालक को ले आयी । इन्द्र हर्ष से ऐरावत मज पर आरून कर मेरु पर ले गया। १००८ विशाल कलशों से क्षीर सागर का जल लाकर महा-मस्तकाभिषेक किया । प्रभु का नाम श्री नमिनाम रखा । लाल कमल का चिह्न २२६ ]