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पर्ययज्ञान मण्डित मुनिराज थे, इस प्रकार सब ४००० मुनिग थे बंधुसेना को आदि लेकर ५५००० प्रजिकाएँ थीं, मुख्य श्रोता नारायण को लेकर १ लाख श्रावक और ३ लाख श्राविकाएँ थीं । कुवेर नाम का यक्ष, अपराजिता (अनजान ) यक्षी थी । इस प्रकार समस्त आर्यखण्ड की पुण्यभूमि को मुक्ति मार्ग प्रदर्शन कर आयु के १ माह शेष रहने पर वे श्री सम्मेदाचल के सम्बल कूट शिखर पर प्रतिमा योग से आ विराजे ।
योग निरोध -
एक महिना आयु रहने पर दिव्यध्वनि होना बन्द हो गया । समवशरण विघटित हुआ । आप ५००० मुनियों के साथ निश्चल सम्मेद शैल पर विराजे । ध्यान की शक्ति अपार है, शुक्ल ध्यान की महिमा अचिन्त्य है । आयु के अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर अन्तिम शुक्लध्यान का प्रयोग किया । श्रवशेष ६५ कर्म प्रकृतियों को मामूल भस्मसात कर अ इ उ ऋ लृ उच्चारण काल मात्र १४ वें गुण स्थान में स्थित हो, अनन्त काल के लिए परम सिद्ध स्थान में जा विराजे । निष्कल भगवान fra परमेष्ठी दशा को प्राप्त हुए। इनके साथ ही फाल्गुन शुक्ला पञ्चमी के दिन भरणी नक्षत्र में शाम के समय कर्मों को नष्ट कर तनुवातत्रलय में जा विराजे । समस्त इन्द्र देव देवियों ने आकर निर्धारण कल्याणक पूजा कर उत्सव मनाया। अग्नि कुमार देवों ने मुकुट मणियों की ज्योति से अग्नि उत्पन्न कर संस्कार किया । नाना प्रकार मंगलोत्सव मना अपने-अपने स्थान में चले गये ।
विशेष
श्वेताम्बर ग्राम्नाय में मल्लिनाथ स्वामी को स्त्री कहा है यह सर्वथा निराधार और प्रागम युक्ति से प्रतिकूल है। वे स्वयं भी स्त्री कहते हुए प्रतिमा पुरुषाकार मानते हैं। जो हो दिगम्बर आम्नाय से यह सर्वथा असत्य है । ये काम विजयी बाल ब्रह्मचारी राजकुमार थे । केवली कवलाहार भी नहीं करते ।
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इन्हीं के समय में पद्मनाम का चक्रवर्ती हुया | सातवें वलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण भी हुए। वलदेव का नाम नन्दीमित्र, 'दत्त'
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