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लंकारों से अनेक प्रकार पूजा-सत्कार किया, उत्सव किया । गर्भकल्या-. एक सम्बन्धी विधि-विधान कर अपने-अपने स्थान चले गये ।
अम्म कल्याएक
सीप मुक्ता को धारण कर और मेघमाला चन्द्र को गोद में लेकर जिस प्रकार शोभित होती है, उसी प्रकार माता श्रीकान्ता गर्भधारण कर अपूर्व लावण्य, प्राश्चर्य चकित करने वाली बुद्धि से मण्डित हुयीं है जैसा जीव गर्भ में प्राता है माँ को उसी प्रकार के दोहले हा करते हैं । अत: श्रीकान्ता भी सब पर मेरा शासन हो, कोई दुःखी न हो, सर्वत्र धर्म का साम्राज्य हो इत्यादि भावों से युक्त थीं। धीरे-धीरे नवमास पूर्ण हुए। जिसकी सेवा में अनेकों देवियाँ अपना स्वर्गीय वैभव त्याग कर तत्पर हैं उसकी महिमा और सुख का क्या कहना है ?
. जिस प्रकार पश्चिम दिशा चन्द्र को उदय करती है उसी प्रकार जगन्माता श्रीकान्ता ने वैशाख शुक्ला पड़का के दिन कृतिका नक्षत्र में जगत्राता पुत्र रत्न को उत्पन्न किया, परन्तु उसे तनिक भी प्रसव पीड़ा नहीं हुयी अपितु परम शान्ति और संतोष हुमाई
घंटा नाद आदि चिह्नों से तीर्थङ्कर प्रभु का जन्म हुमा ज्ञात कर चतुणिकाय के इन्द्र, देव-देवियाँ पाये । सौधर्मेन्द्र की शची देवी प्रसूतिगह में गई। मायामयी बालक सुलाकर प्रभुत तेज पूज स्वरूप बालक को लाकर इन्द्र की गोद में शोभित किया । हजार नेत्रों से निरख फर भी अतृप्त इन्द्र सद्योजात बालक को ऐरावत हाथी पर विराजमान कर पाण्डुक शिला पर ले गया । १७०८ कलशों में क्षीर सागर का हाथोहाथ जल लाकर अभिषेक किया । पुनः प्रन्य देवि-देवों ने जन्माभिषेक किया। इन्द्राणी ने अनेकों औषधियों के कल्क का अभिषेक किया। गंधाभिषेक, चन्दनानुलेपन किया । प्रारती उतारी। कोमल वस्त्र से अङ्ग पौंछा । वस्त्रालंकार धारण कराये व तिलक और अजन लगाया। लवरणावतरए किया ।
नानाविध जय जयकार, अनेक वाद्यघोषों के साथ देव देवांगनाएँ इन्द्र के साथ वापिस पायीं। बालक को "कुम्बुमा" नाम से प्रख्यात किया। और चिह्न विश्रवण" निर्धारित किया। आनन्द नाटक प्रदर्शित कर बालरूप धारी देवों को छोड़कर सब अपने अपने स्थान
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