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________________ क्या यह मेरा यथार्थं पराक्रम है ? अब मुझे सच्चा पुरुषार्थं करना चाहिए । बस, अपने पुत्र को राज्यभार समर्पण कर "यतिवृषभ" मुनिराज के शरण सानिध्य में दीक्षा धारण कर ज्ञान, ध्यान, तपोलीन हो गये । मुनिराज सिंहस्थ ने ११ अङ्गों का अध्ययन किया । १६ कारण भावनाएँ भायों और सर्वोत्तम पुण्य का फल रूप तीर्थङ्कर गोत्र बंध किया । अन्त में समाधि सिद्ध कर सर्वार्थसिद्धि विमान में ३३ सागर की आयु और १ अरनि प्रमाण शुभ्र शरीर वाले अहमिन्द्र हुए । ३३ पक्ष बाद उच्छ्वास र ३३ हजार वर्ष के पीछे मानसिक आहार था । निरन्तर तत्वचिन्तन में लीन रहते थे । गर्भावतरण- गर्भ कल्याणक महोत्सव- कुरुrine देश में विशेष रूप से अहिंसा और दया की स्त्रोतस्विनी वेग से बहने लगी । जन-जन के हृदय से कालुष्य घुलने लगा, कृपा का उपवन लहलहाने लगा। कुरुवंशी काश्यप गोत्र शिरोमण गंजपुर ( हस्तिनागपुर ) के राजा सूरसेन का राज्य दया का जीवन्त मूर्तमान रूप था । उनको पटरानो 'श्रीकान्ता' तो सतत सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करतो | प्राणोमात्र को जिनवर समान समझती थी । अकस्मात् एक दिन उस महाराजा के प्रांगन में आकाश से रत्न - वृष्टि हुयो | १२|| करोड़ अनुपम रत्नधारा गिरी। यह क्रम प्रतिदिन तीनों संध्याओं में होता रहा। न केवल राजा-रानी श्रपितु समस्त प्रजा किसी विशेष यु की आशा से संतुष्ट हो गई। उपर्युक्त श्रहमिन्द्र समाप्त हुयी और यहाँ रत्नवृष्टि के ६ महीने पूर्ण हुए । की रिमझिम वर्षा, कृष्ण पक्ष रात्रि का समय, महारानी श्रीकान्ता श्री, ह्री, धृति, कीर्ति आदि देवियों से सेवित सुख निन्द्रा में मग्म थी । vaafift वासिनी देवियों ने उसके गर्भाशय को दिव्य सुगंधित द्रव्यों से सुवासित कर दिया था । भादों कृष्णा दशमी, कृतिका नक्षत्र में महादेवी ने अद्भुत १६ स्वप्न देखे और प्रातः श्रानन्द से झूमती महाराजा के समीप जाकर विनम्रता से उन स्वप्नों का फल भावी तीर्थङ्कर बालक होना ज्ञात कर उभय दम्पत्ति परमानन्दित हुए। उसी समय इन्द्रादि देव देवियों ने साकर माता-पिता ( राजा-रानी) की वस्त्रा PE
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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