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१७-१००८ श्री कुन्थुनाथ जी
पूर्वभव परिषष
अरे! यह क्या ? उल्कापात । हाँ सत्य है, यह समस्त संसार भी इसी प्रकार क्षरण हवंशी है । क्या शरीर की यही दशा नहीं ? बाल से कुमार और कुमार से क्रमश: यौवन, वृद्धत्व और नाश मरण, यही चक्र तो घूमता है अनादि से । आत्मा क्या है वह अंजर-अमर है किन्तु क्षसिक पदार्थों को अपना मान दुःखी होता रहा है, यह मेरा भयंकर मोह है, प्रज्ञान है, अपराध है। इस प्रकार सोचते-सोचते महाराजा सिहरथ अधीर हो गया। पुनः विचारता है यह विदेह क्षेत्र, सीता नको के दक्षिण तट पर स्थित वत्स देपा, सुमीमा नगरी, मेंरा राज्य क्या सदा रहेगा? मैंने समस्त राजाओं को पराजित कर भगाया, पर यह विभूति, राज-पाट स्थिर रह सकेगा? नहीं। वह थर-थर कांपने लगा। यह मोह भयंकर तिमिर है। मैं सिंह समान पराक्रमी मेरे प्रताप से नाम मात्र सुनकर बड़े-बड़े राजा महाराजा मेरी शरण में आ जाते हैं, पर