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अपने पुरुषार्थ से नष्ट कर पूर्ण स्वतन्त्र होता है, अपने प्रात्मा को शुद्ध बना सकता है। भगवान बनने को उद्यत धर्मनाथ मुनिराज ने शुक्ल-ध्यान प्रारम्भ किये । क्षपक घेणी पर चढ़ने के क्षण से वे कम अपने प्रकर्ष रस सहित नष्ट होने लगे। प्रथम कर्मों का राजा मोहनीय आमूल दग्ध हो गया। दूसरे ही क्षण ज्ञानावरगो, दर्शनावरणी और अन्तराय भी समाप्त हुए। इस समय प्रभु अपने दीक्षावन-शाल वन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ थे । पौष शुक्ला पौर्णमासी के दिन आपने इसी वन में तत्क्षा पूर्णज्ञान-केवलज्ञान प्राप्त किया। अब मुनिराज सर्वज्ञ हुए । वास्तविक अर्हन्त अवस्था प्राप्त की।
इन्द्र की प्राज्ञा से कुवेर ने 'समवशरण सभा मण्डप की रचना की 1 क्योंकि छास्थ काल में तीर्थर उपदेशश नहीं करते । पूर्ण ज्ञानी होने पर ही उनकी 'दिव्य ध्वनि खिरती है। अत: १२ सभा कक्षों से युक्त गंधकुटी की रचना कर मध्य में सिंहासन रमा उस पर चार अंगुल अपर प्रभु विराजे । चारों ओर देव, विद्याधर, मुनि, प्रायिका, श्रावकश्राविकाएँ उपदेश श्रवण करने को व्यवस्थित इंग से बैठे। यह मण्डप ५ योजन (२० कोस) विस्तृत गोलाकार था । इसमें बैठने वालों की संख्या निम्न प्रकार थी।
अरिष्टसेन प्रादि ४३ गणधर थे, '४५०० केवली, ६०० अंग और १४ पुर्वधारी थे, ४०७०० पाठक, ४५०० मन: पर्ययज्ञानी, ७००० विक्रियाद्धिधारी, १६०० अवधिज्ञानी, २८०० वादीगण, इस प्रकार समस्त ६४०० मुनिराज थे। सुक्षता मुख्य गरिपनी प्रायिका के साथ ६२४०० अजिकाएं थीं। पूरुपवर को प्रादि ले २ लाख श्रावक एवं चार लाख धाविकाएँ थीं। इनका प्रमुख यक्ष किंपुरुष (किन्नर) और यक्षी मानसी (परिभृते) थी। दोनों प्रभु के दांये बांये पार्श्वभाग रहते थे ।
प्रथम इन्द्र ने ज्ञानकल्याणक महोत्सव पूजा की । एक हजार नामों से स्तवन किया 1 पुनः सभी ने अरिष्टसेन मगधर मुनिराज के माध्यम से प्रभ की देशना-धर्मोपदेश श्रवण किया । इन्द्र के निमित्त से भगवान ने समस्त प्रार्यस्खण्ड में यथार्थ तत्त्वोपदेश, श्रावक और यति धर्म स्वरूप प्रतिपादन कर अनेकों श्रावक-श्राविका, मुनि-पायिका बनाये, मोक्ष मार्ग पर लगाये। भव्यों का कल्याण करते हुए २५० हजार वर्ष तपः पुत जीवन बिताया।
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