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________________ ܐ 2w Sent 1 froक्रमण कल्याणक स्नेह और मोह की फांसी को काटने को उद्यत प्रभु का दृढ संकल्प जानकर इन्द्र भी अपनी समस्त सेना परिकर को ले आया । प्रथम दीक्षाभिषेक किया प्रनेकों रत्नमय वस्त्रालंकार पहिनाये । धर्मनाथ ने भी अपने सुधर्म नाम के पुत्र को राज्यभार अर्पण किया। स्वयं इन्द्र द्वारा लायी गयी नागदत्ता पालकी में सवार हुए। स्वयं इन्द्र और देव आकाश मार्ग से लेकर शालवन में पहुँचे । वहाँ उन्होंने माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन पुष्य नक्षत्र में सायंकाल १ हजार राजाश्रों के साथ लेला के उपवास धारण कर "नमः सिदेभ्य के साथ पञ्चमुष्ठी लौंचकर भव विनाशिनी जिन दीक्षा धारण की । उसी समय उन्हें मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया । प्रखण्ड मौनव्रत धारण कर प्रभु ध्यान लीन हो आत्मविशुद्धि करने लगे । पारणा aum तेला पूर्ण होने पर वे बाहार के लिए पाटलीपुत्र वा पटना नगरी में प्रविष्ट हुए । उन्हें वहां के राजा धन्यसेन ने सप्तगुणमण्डित होकर गान किया । हे भगवन् नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु, अत्र तिष्ठ तिष्ठ प्रहार जल शुद्ध है इत्यादि कह usगान किया | नवधा भक्ति से सपत्नीक आहार दिया । दाता, पात्र, विधि और द्रव्य की विशिष्टता से उसके घर देवों द्वारा पञ्चाश्चर्य हुए। सुवर्ण की कान्ति को धारण वाला राजा बडभागी हर्ष से फूला नहीं समाया । छपस्य काल एक वर्ष तक महा मौनी, महाध्यानी भगवान तपः लीन रहे । घोर तप किया। कर्मों की स्थिति और अनुभाग शक्ति को क्षीण तम कर दिया । केवलज्ञान और ज्ञान कल्याण कर्म क्या है ? स्वयं विकारी जीव द्वारा उपावित कामस्रिवर्गगानों का पिण्ड है, उसी की विकार भावना से उत्पन्न उसमें अनुभागफल देने की शक्ति है । इस द्रव्य और भाव रूप कर्म को जीव हो स्वयं [ १८
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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