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देवियाँ शची आदि जन्म कल्याणक महोत्सव मनाने आये । देखिये, अद्भुत पुण्य प्रताप, इनके जन्मते ही नारकियों को भी सुख-शान्ति का अनुभव हो जाता है । सारी सृष्टी प्रानन्द विभोर हो गई।
इन्द्र ऐरावत गज पर सवार होकर प्रभु बालक को सुमेरु पर ले मये । वहाँ पाण्डुक वन के मध्य, पाण्डुक शिला पर प्रभु को बैठाया
और १००८ क्षारसागर के जल से भरे सूबा घटों से अभिषेक किया । नाच-कूद कर इन्द्राणी आदि ने भी अभिषेक किया, कोमल वस्त्र से उनका शरीर पोंछा, अलंकार पहनाये, आरती उतारी । पुन: रत्नपुरी में पाकर माता की गोद में बैठाकर माता-पिता का भी सम्मान किया । इन्द्र ने स्वयं ताण्डव-आनन्द नृत्य किया और अपने-अपने स्थान पर चले गये । बच्चे के साथ देव बालक ही क्रीड़ा करने आते थे। देवियाँ उनका स्नान, गार आदि कार्य स्वर्गीय वस्तुनों से ही करती रहीं।
श्री अनन्तनाथ के मोक्ष जाने के बाद ४ सागर बीतने पर इनका जन्म हवा । इनके जन्म से पूर्व प्राधेपत्य तक धर्म का उच्छेद रहा । इन्द्र ने इनका नाम "धर्मनाथ" विख्यात किया । बत्रदण्ड चिह्न निश्चित किया । इनकी आयु १० लाख वर्ष की थी, शरीर की कान्ति सपाये हुए सुपर्ण के समान थी । शरीर १०० हाथ ऊँचा था । कुमार काल----
बाल लीलाओं के साथ ढाई लाख वर्ष कुमार काल के समाप्त हो गये । ये सबको हषित करने वाले थे। पिता ने परमानन्द से अपना राज्यभार इन्द्र की अनुमति से इन्हें अर्पित किया और अनेकों सुन्दरी, गुणवती, योग्य कन्यानों के साथ विवाह कर दिया । ये भी राज्य वैभव पाकर यथोचित, न्याय मार्ग से प्रजा पालन करने लगे। सर्व प्रकार धर्मराज्य वृद्धि को प्राप्त हुआ । इस प्रकार राज्य करते ५ लक्ष वर्ष व्यतीत हो गये। वैराग्य----
किसी एक दिन "उल्कापात' देखकर इन्हें सहसा विरक्ति भावों ने अा घेरा । हृदय संवेग से भर गया । इन्होंने प्रात्मकल्याण की ओर चित्तवृत्ति को लगाया। उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर अपनाअपना नियोग पूर्ण किया और ब्रह्मलोक में चले गये।