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________________ था। अनासक्त अहमिन्द्र प्रवीचार रहित अनुपम सुख सागर में मस्त था । तत्व चिन्तन मात्र ही जीवन का कार्य था । समय बीत गया । गर्भ कल्याणक महोत्सव जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रत्नपुरी नगरी का सौभाग्योदय हुमा । यहाँ का राजा महासेन अपनी प्रिया सुनता देवी के साथ निकण्टक राज्य करता था ! यह बहुत ही शूर-बीर और रणधीर था । इसीसे इनका राज्य सुविस्तृत और विपुल धनराशि का खजाना था। ६ माह से तो बाढ़ आ गई आकाश से निरन्तर रत्न-वृष्टि होने लगी। कौन उठावे उन्हें ? पर रोक भी कौन सकता था। बिना प्रयत्न के देवियाँ पा-माकर महादेवी का मनोरंजन कराती, मेवा, सुश्रषा करती रहीं। ६ मास पूरे होने लगे। रुचकगिरी वासिनी देव कन्यायें पाकर उस देवी (रानी) के गर्भ को शोधना कर सुगंधित कर दिया । महारानी भी शुद्ध मन से श्री सिद्ध परमेष्ठी का ही ध्यान करती । विक्कुमारियों से सेवित मां प्रसन्न चित्त थी । बैशाख शुक्ला प्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में रानी ने १६ स्वप्न देखे, उसो समय वह मुरम्य अहमिन्द्र, स्वार्थसिद्धि से यूत हो इसके गर्भ में प्रवरित हा । रुचगिरि कूमारियों द्वारा शोषित गर्भ में सीप में मुक्ता की भाँति भावी तीर्थङ्कर का जीव अवतरित हुा । सवेरा होते ही राजसभा में महासेन से अपने स्वप्नों का फल 'तीर्थङ्कर' का जन्म जानकर अत्यानन्दित हो अन्त:पुर में प्रा गई । महाराज महासेन को कितना मानन्द हमा? यह वर्णनातीत है । उसी समय देवेन्द्र सपरिवार प्राया और गर्म-कल्याणक महोत्सव मना कर अपने स्थान पर चला गया । स्वर्गीय वस्त्रालकारों से राज-रानियों को सजिस किया। देवियों से मनोरंजित महादेवी का काल बीतने लगा। अन्म कल्पारणक-- कमशः प्रानन्द पूर्वक, उत्साह से नौ माह पूरे हुए ! माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन पुष्य नक्षत्र में तीन ज्ञानधारी पुत्ररत्न को उत्पन्न किया । बालक की मुखाभा से कक्ष प्रकाशित हो उठा। मां को किसी भी प्रकार की बात्रा नही हुई । व प्रानन्द से सोयी रही । इन्द्रादि देव,
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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