SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था । मन ही मन फूला न समाया । किन्तु सहसा वह चौंक पड़ा, उसका हृदय कने लगा, शरीर कांपने लगा, "हैं, यह क्या हुआ ? इस चन्द्रमा की कमनीयता कहाँ गई ? ग्रोह ! राहु ने डस लिया इसे ? ठीक है हमारी या रूपी चाँद के पीछे भी मृत्यु रूपी राहु तैयार खड़ा है । बस, O राजा रथ चन्द्रमा की क्षीण होती ज्योति को देखते हुए बस अब तक ठगा गया, अब तो सावधान होना चाहिए । अब मैं शीध ही वृद्धावस्था श्राने के पूर्व ही अपना आत्म-कल्याण करूंगा। यह संसार उलझन है। इसमें फंसकर अज्ञानी मकड़ी की भाँति जीवन नष्ट नहीं होने दूँगा ।" दृढ़ संकल्पी महाराजा ने अपने पुत्र महारथ को राज्यार्पण किया । स्वयं श्री विमलवाहन मुनिराज के चरणों में गया और दीक्षित होकर ११ अङ्ग का पाठी बन शुद्ध हृदय से दर्शनविशुद्धयादि १६ भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थंकर नामगोत्र बन्ध किया । समाधिपूर्ण मरण कर सर्वार्थसिद्धि विमान में ३३ सागर की आयु ले उत्पन्न हुआ । १ हाथ का सफेद शरीर था । सम्यक्त्व लेकर ही उपजा । ३३ हजार वर्ष बाद मानसिक प्रहार करता था । अवधि से लोकनाड़ी प्रमाण को जानता १५० } --------------98888888
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy