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________________ I दिया । योग निरोध कर श्री मन्दारगिरि पर मनोहर वन में पर्यकासन से आ विराजे । अन्तिम शुक्ल ध्यान के प्रभाव से शेष कर्मों का नाश करना प्रारम्भ किया | आपके साथ ही ९४ मुनिराज भी एकांग्रध्यान चिन्तन में लीन हुए । मोक्ष कल्याणक ध्यानानe प्रज्वलित हो रहा था । कर्म कालिमा भस्म होने लगी । ग्रात्म कंचन अपने शुद्ध स्वभाव में आने लगा। क्या देर लगी ? कुछ नहीं, ८५ प्रकृतियाँ खाक हो गई । १४ वें गुरु स्थान में अ इ उ ऋ लृ उच्चारण में जितना समय लगता है उतने काल ठहर कर मुक्ति रमा के कंत हो मोक्ष सौध में जा विराजे ९४ मुनिराजों के साथ। उसी समय चतुणिकाय देव देवियों से मन्दार गिरि खचाखच भर गया । जय-जय नाद गूंज उठा । चारों ओर हर्षोल्लास छा गया। नाच-कूद, स्तुति ध्वनि गूंज होने लगी । अग्निकुमार देवों ने अग्नि संस्कार कर मानों अपने समस्त कल्मषों को जला डाला । श्रपने-अपने भावों के अनुसार पुण्यार्जन और पापहानि कर देवगरण मोक्ष कल्याणक पूजा-विधान कर दिवोलोक को प्रस्थान कर गये । नर-नारियों- श्रावक भाविकानों ने भी नानाविध दीपमालिका जलाकर प्रष्ट द्रव्यों से महा पूजा की । निर्मल सम्यक्त्व प्राप्त कर अनन्त संसार का नाश किया। भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन मुक्त हुए। संध्या समय विशाखा नक्षत्र में । भगवान वासुपूज्य स्वामी बालब्रह्मचारी थे । इनके काल में द्विपृष्ठ नारायण हुआ और अचल बलभद्र, तारक नाम का प्रतिनारायण हुए । नारायण और प्रतिनारायण राज्य की लिप्सा से हिसानन्दी रौद्र ध्यान का माहात्म्य से सातवें नरक में गये और अचल बलभद्र दोक्षा ले तप कर कर्मों को ध्वस्त कर मोक्ष पधारे । ग्राशापाश संसार दुःखों की खान है और वैराग्य प्रनन्त सुख का निमित्त । १६४ ] चिह्न adblown B भैंसा
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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