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विहार को निकले । रवि रश्मियों से द्योतित प्रोस बिन्दुओं का सुन्दर वितान उनको इष्टि में आया और देखते ही देखते वह नष्ट हो गया । बस, वाह्य दृष्टि को अन्तक्षेत्रको निरीक्षण करने का अवसर मिला। अर्थात् इसी निमित्त से उन्हें वैराग्य हो गया।
वे विचारने लगे, प्रत्येक पदार्थ पर्याय अपेक्षा नाशवान है, क्षरणक्षरण में बदलते हैं । प्राज मुझे दुःख, दुःखी और इनके निमित्त का सही परिज्ञान हुआ है। इस दुःख की जड़ मोह कर्म को अब शीघ्र ही उन्मूलित करूगा । यह सोचना कि मैं सुखी हूँ, ये सब मेरे सुख हैं, पुण्य कर्म से प्रागे भी मिलेंगे, महा अज्ञान है-महा मोह है । कर्म पूण्य रूप हो या पाप रूप, दोनों ही आत्म स्वरुप के धातक हैं । यद्यपि पाप कर्म मेरा नष्ट सा हो चुका है अब इस पुण्य कर्म को भी भस्म करूगा। सच्चा सुख उदासीनता में है, साम्यभाव से प्राप्त है। प्रारम विकास का शुद्ध निश्चय करते हो उन्होंने अपने पुत्र को राज्यार्पण किया। उसी समय लौकान्तिक देवों ने प्राकर उनके वैराग्य भाव की पुष्टी कर प्रभूत पुण्यार्जन किया। दोक्षा कल्याण
देवषियों के जाते ही इन्द्र महाराज शुक्रप्रभा नामकी पालकी ले प्राये। प्रथम प्रभ का अभिषेक कर अलंकृत किया, पूजा की और शिविकारूढ होने की प्रार्थना की। प्रभु भी प्रवीन सवार हुए । राजाओं के बाद देवगण पालकी ले सहेतुक वन में जा पहुँचे । माघ कृष्णा द्वादशी के दिन पूर्वाषाढ नक्षत्र में शाम के समय १००० राजानों के साथ दिगम्बर दीक्षा स्वयं पारा की। दो दिन उपवास की प्रतीज्ञा की। प्रखण्ड मौन से ध्यान प्रारम्भ किया। देवेन्द्र दीक्षा कल्याण पूजा कर देव लोक गये । पारणा...- दो दिन बेला के अनन्तर प्रभु आहार के लिए चर्या मार्ग से निकले । ईपिथ शुद्धि पूर्वक उन ऋषिराज ने अरिष्ट नगर में प्रविष्ट किया । वहाँ के राजा पुनर्वसू ने बड़ी भक्ति से पङगाहन किया। बड़ी प्रसन्नता से नवधा भक्ति से क्षीरान का प्राहार दिया। निरंतराय आहार होने पर देवों द्वारा पंचाश्चर्य हुए। भगवान मुनिराज ने, विविध प्रकार भयंकर कठोर तप करते हए नात्मान्वेषण किया।
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