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छपस्थ काल....
घोरातुघोर तप करते हुए तीन वर्ष व्यतीत किये अर्थात् छद्मस्थकाल व्यतीत किया । केवलमान कल्याणक
पौष कृष्णा चतुर्दशी के दिन सायंकाल, पूर्वाषाढ नक्षत्र में विश्ववृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास कर पा विराजे । पीताभा से चमत्कृत प्रभ उसी समय सकलज्ञान साम्राज्य के अधिपति हए । अर्थात पूर्णज्ञानी हुए इन्द्रादिक चतुरिएकाय देव-देवियों ने प्राकर केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव किया । नानाविध फल-पूष्यादि से अष्टविध पूजा की । महोत्सव कर स्वर्ग गये । नर-नारियों, राजा महाराजा, रानियों आदि ने भी प्रष्ट प्रकारी पूजा की।
समवशरण रचना---
इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर ने ८ योजन ३२ कोस प्रमाण विस्तार वाला, गोलाकार अष्टभूमियों से वेष्टित, बारह सभापों से मण्डित श्रेष्ठतम अनुपम समवशरण मंडप दिव्य शक्ति से बनाया । यह प्रकाश में भूमि से ५०० योजन ऊपर था, चारों और १-१ हाथ लम्बी-चौड़ी २०००० सीटियाँ बनाता है। प्राबालबद्ध सभी अन्तम हर्त मैं ऊपर जा बैठते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति का बिल्व वृक्ष अशोक वृक्ष बनकर समवशरण को शोभा बढाता है । ठीक मध्य भाग, तीन कटानियों के सूवर्ण सिंहासन पर भगवान अधर विराजे । शुद्ध शान की निर्मलता से शरीर भी परमौ. दारिक परिशुद्ध हो जाने से उनका चारों ओर मुख दिखलाई देने लगा । त्रिकाल दिव्यध्वनि द्वारा तत्वोपदेश, घोपदेश होता। नर-देव और पशु-पक्षी भो यथायोग्य स्थान में बैठकर घमें श्रवण कर योग्य व्रत-दीक्षा श्रावकादि के नियम धारण करते। इस प्रकार समस्त प्रायखण्ड को पावन चरण धूलि से पवित्र करते हुए सर्वत्र धर्मामृत वर्षण किया । इनके उभय पार्य में सतत नेवक भाव युत ब्रह्म श्वर (ब्रह्म) या और मानवी (चामुंडे) यक्षी विद्यमान रहती थी। मध्य में पशासन से भगवान विराजते थे ।
इनके समवशरण में अनगार को प्रमुख कर ८१ गणधर थे । ये सप्तऋद्धि और मन : पयंय ज्ञान सम्पन्न थे । समवशरमा में २००७
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